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सकती है, उसी प्रकार इस द्रव्य की सहायता से जीव व पुद्गल लोक में गति करते हैं। यह द्रव्य अपरिणामी, अमूर्त, सप्रदेशी, प्रक्रिय, नित्य तथा देशगत है ।
२. अधर्मास्तिकाय-यह द्रव्य भी चौदह राजलोक में फैला हुना है। यह द्रव्य जड़ और चेतन को स्थिरता में सहायक है। धर्मास्तिकाय की भाँति यह भी अपरिणामी, अमूर्त, सप्रदेशी, प्रक्रिय, नित्य तथा देशगत है।
३. आकाशास्तिकाय—यह द्रव्य लोक और अलोक दोनों में रहा हुआ है। यह द्रव्य अन्य सभी द्रव्यों को अवकाश प्रदान करता है। यह द्रव्य अपरिणामी, अमूर्त, सप्रदेशी, अक्रिय, नित्य तथा सर्वगत है।
५. पुद्गलास्तिकाय-इकट्ठा होना और बिखर जाना यह पुद्गलास्तिकाय का स्वभाव है। इस दुनिया में जितनी भी भौतिक सामग्रियाँ दिखाई देती हैं, वे सब पुद्गल द्रव्य से ही निर्मित हैं। पुद्गल द्रव्य परिणामी अर्थात् परिणमनशील है, रूप, रस, गंध और स्पर्श इसके गुण हैं। यह मूर्त, सप्रदेशी और सक्रिय भी है। यह द्रव्य चौदह राजलोक में व्याप्त है।
५. काल-जो नई वस्तु को पुरानी बनाता है, उस द्रव्य को काल द्रव्य कहते हैं। यह द्रव्य अपरिणामी, अमूर्त, अप्रदेशी, नित्य, अक्रिय तथा देशगत है ।
६. जीवास्तिकाय-जिसमें चेतना है, उसे जीव कहते हैं। प्रत्येक जीव में असंख्य प्रात्मप्रदेश होते हैं। अनेक प्रदेशों के समूह वाला होने से जीव को जीवास्तिकाय भी कहते हैं। इस
शान्त सुधारस विवेचन-५२