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बड़ा दुर्गुण है। आत्मचिन्तन के बिना उसका निराकरण शक्य नहीं है। इस विस्तृत लोकस्वरूप का चिन्तन हमारे मन की स्थिरता में सहायक बनता है। विस्तृत लोकस्वरूप के चिन्तन से हमें यह पता चलता है कि हमारी आत्मा इस विशाल लोक में किस प्रकार भटक रही है। कभी वह मनुष्य के रूप में रही है तो कभी वह पशु चेतना के रूप में। कभी अपनी आत्मा ने देवत्व प्राप्त किया तो कभी वह नारक भी बनी है। इस प्रकार एक नट की भाँति भ्रमण कर रही अपनी आत्मा ने अनेक रूप किए हैं।
अपनी आत्मा के भवभ्रमण के चिन्तन से हमें इस संसार के प्रति निर्वेद पैदा हो सकता है। कैसा यह भीषण संसार है ? जहाँ जन्म-मरण की भयंकर कैद में हमारी आत्मा नाना प्रकार की आपत्तियों का ग्रास बनती जा रही है।
यह संसार वास्तव में दुःख रूप, दुःखफलक और दुःखानुबन्धक ही है। यहाँ का क्षणिक सुख भी भावी भयंकर दुःख का ही कारण बनता है।
अपनी आत्मा का भूतकाल भयंकर दुःखों में ही व्यतीत हुआ है, इस संसार में मधु-बिन्दु तुल्य कहीं क्षणिक सुख है तो उस सुख के पीछे पुनः दुःख का ही पहाड़ खड़ा हुआ दिखाई देता है।
इस प्रकार लोकस्वरूप के चिन्तन से मन की स्थिरता प्राप्त होती है और मन की स्थिरता एक बार प्राप्त हो जाय तो उसमें से आत्महितकर अध्यात्म-सुख की प्राप्ति सुलभ हो जाय ।
शान्त सुधारस विवेचन-५५