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धर्मास्तिकाय आदि सभी द्रव्य इसी लोकाकाश स्वरूप चौदह राजलोक में रहे हुए हैं। इनमें से कुछ द्रव्य परिणामी हैं, कुछ अपरिणामी हैं, कुछ द्रव्य स्थिर हैं, चर हैं तथा कुछ द्रव्य अस्थिर अर्थात् चर हैं । धर्मास्तिकाय-अधर्मास्तिकाय द्रव्य चौदह राजलोक रूप लोकाकाश में सर्वव्यापी और स्थिर हैं जबकि जीवास्तिकाय और पुद्गलास्तिकाय अचर द्रव्य हैं। इस चौदह राजलोक में उनका परिभ्रमण होता रहता है।
पुद्गलास्तिकाय के सूक्ष्मांश भाग को परमाणु कहते हैं, ऐसे एक-एक परमाणु भी स्वतन्त्र रूप में बिखरे हुए हैं। एक परमाणु में भी रूप-रस-गन्ध और स्पर्श पाए जाते हैं। जब दो-दो परमाणु परस्पर मिलते हैं तो वे 'द्विपरमाणु वर्गणा' कहलाते हैं, ऐसी भी अनेक वर्गणाएँ चौदह राजलोक में चारों ओर फैली हुई हैं। तीन-तीन परमाणु पुद्गल के समूह से बनी हुई वर्गणा भी चौदह राजलोक में बहुत सी हैं। इस प्रकार चार-पाँच क्रमशः हजार, लाख, असंख्य और अनन्त परमाणु पुद्गलों के समूह से बनी हुई वर्गणाएँ इस चौदह राजलोक में फैली हुई हैं। इनमें से अनेक वर्गणाएँ अग्राह्य अर्थात् जीव के द्वारा ग्रहण करने योग्य नहीं हैं और कुछ वर्गणाएँ जीव द्वारा ग्राह्य हैं।
पुद्गल द्रव्य की पर्यायें (अवस्थाएँ) प्रतिसमय बदलती रहती हैं । उसके रूप-रस-गन्ध-स्पर्श भी परिवर्तनशील हैं । कभी उसका रूप सुन्दर होता है तो कभी वह कुरूप बन जाता है। कभी वह सुगन्धित होता है तो कभी वह अत्यन्त दुर्गन्धयुक्त बन जाता है।
अपना शरीर औदारिक वर्गणा के पुद्गलों का बना हुआ है, उसके रूपादि में होने वाले परिवर्तन हमें प्रत्यक्ष दिखाई देते हैं।
शान्त सुधारस विवेचन-५७