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राजलोक का विस्तार है, जहाँ मध्य में ब्रह्मदेवलोक प्राया हुआ है। गले के स्थान पर ६ ग्रैवेयक आए हुए हैं और मुख के स्थान पर ५ अनुत्तर। सबसे ऊपर सिद्ध भगवंत आए हुए हैं।
इस चौदह राजलोक रूप विश्व का कोई कर्ता या संहारक नहीं है।
सोऽयं ज्ञयः पुरुषो लोकनामा ,
षद्रव्यात्माऽकृत्रिमोऽनाद्यनन्तः । धर्माधर्माकाशकालात्मसंज्ञ
द्रव्यैः पूर्णः सर्वतः पुद्गलैश्च ।। १४५ ॥
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द्रव्य.
अर्थ-यह लोक-नामधारी 'लोक पुरुष' षड्द्रव्यात्मक, अनादि-अनन्त स्थिति वाला तथा अकृत्रिम है तथा धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, काल, जीवास्तिकाय तथा पुद्गलास्तिकाय से पूर्ण रूप से व्याप्त है ।। १४५ ।।
विवेचन लोक में विद्यमान द्रव्य
इस चौदह राजलोक रूप विश्व में छह द्रव्य रहे हुए हैं।
१. धर्मास्तिकाय-यह द्रव्य चौदह राजलोक में फैला हुआ है। इसका कार्य जीव और पुद्गल को गति में सहायता करना है।
जिस प्रकार जल की सहायता से मछली पानी में गति कर
शान्त सुधारस विवेचन-५१