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पहिचान में ही करती हैं और वे सदैव एक दूसरे को पीड़ा पहुँचाते रहते हैं।
3. परमाधामी कृत-प्रथम तोन नरक तक परमाधामीदेव नरक के जीवों को भयंकर त्रास देते रहते हैं। १५ प्रकार के परमाधामीदेव छेदन-भेदन प्रादि के द्वारा नरक के जीवों को सतत पीड़ा पहुँचाते रहते हैं ।
मिथ्यात्व, महा-प्रारंभ, परिग्रह, तीव्र क्रोध, दुराचार तथा रौद्रध्यान आदि से जीवात्मा नरक के आयुष्य का बंध करता है ।
भवनपति-पहली नरक के १३ प्रतरों के बीच जो १२ अन्तराल स्थल हैं, उसमें प्रथम और अन्तिम अन्तराल को छोड़कर शेष १० अन्तरालों में भवनपति निकाय के देव रहते हैं।
ऊपर के १००० योजन में प्रथम और अन्तिम १००-१०० योजन को छोड़ देने पर जो शेष ८०० योजन हैं, उनमें व्यन्तरदेवों के निवास हैं तथा ऊपर के १०० योजन में पूनः प्रारम्भ व अन्त के १०-१० योजन निकाल देने पर जो ८० योजन का क्षेत्र है, उसमें ८ वारणव्यन्तर के निवासस्थल हैं ।। १ । ।
तिर्यग्लोको विस्तृतो रज्जूमेकां ,
पूर्णो द्वीपरवान्तरसंख्यः । यस्य ज्योतिश्चक्रकाञ्चीकलापं , मध्ये कायं श्रीविचित्रं कटित्रम् ॥ १४२ ॥
(शालिनी)
शान्त सुधारस विवेचन-४३