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भौतिक समृद्धि की यह विशेषता होती है कि जीवात्मा उसमें प्रासक्त नहीं बनती है और निमित्त मिलते ही छह खण्ड के राज्य को भी तृणवत् त्याग देती है। धर्म की यह विशेषता है कि वह अल्प त्याग में अधिक लाभ प्रदान करता है।
शालिभद्र ने पूर्व भव में भाव से खीर का दान दिया था, उसके फलस्वरूप धर्म ने श्रेणिक महाराजा से भी बढ़कर उसे समृद्धि प्रदान की और इसके साथ ही उस समृद्धि के त्याग का भी सामर्थ्य प्रदान किया।
शालिभद्र ने अपनी समस्त सम्पत्ति का त्याग कर दिया तो धर्म ने उसे अनुत्तर विमान का दिव्य सुख प्रदान किया।
व्यक्ति ज्यों-ज्यों सुख का त्याग करता है, धर्म उसे उत्तरोत्तर सामग्री प्रदान करता जाता है और अन्त में शाश्वत-अजरामर पद भी प्रदान करता है। प्रात्मा की अखूट सम्पत्ति केवलज्ञान और केवलदर्शन और अव्याबाध सुख का दान, यही धर्म करता है। सर्वतन्त्र - नवनीत - सनातन ,
सिद्धिसदनसोपान । जय जय विनयवतां प्रतिलम्भित
शान्तसुधारसपान , पालय० ॥ १४० ॥ अर्थ-हे सर्वतन्त्रों में नवनीत समान ! हे सनातन ! हे मुक्ति मंजिल के सोपान ! हे विनयजनों को प्राप्त शान्त अमृत रस के पान ! (हे जिनधर्म) आपकी जय हो ! जय हो !! ॥ १४० ।।
धारस-३
शान्त सुधारस विवेचन-३३