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समाधान यह है कि लोकस्वरूप के चिन्तन से हमें दुनिया के विस्तृत स्वरूप का परिचय मिलता है और इस विराट् दुनिया के परिचय से प्रात्मा में धन, वैभव, राज्य, सत्ता आदि का रहा हुमा अभिमान दूर होता है ।
इस सन्दर्भ में एक प्रसंग याद आ जाता है• बम्बई के गोरेगाँव क्षेत्र के जवाहरनगर में एक करोड़पति सेठ रहता था। उस सेठ ने अपने आवास के लिए सात मन्जिल का आलीशान बंगला बनवाया । आधुनिक फर्नीचर और साज-सज्जा से अलंकृत बैठक खण्ड था। मकान में रेडियो, टी. वी., टेलीफोन, एयर कण्डीशनर आदि की अनेकविध सुविधाएँ थीं। इस वैभव और विलास में मस्त फकीरचन्द सेठ अपनी बाह्य समृद्धि को देख फूले नहीं समाते थे। सदैव उनके मुख पर अपने वैभव का दर्प दिखाई देता था। सेठजी के घर पर जो भी बाहर से मेहमान पाते, सेठजी उनके समक्ष अपने वैभव का प्रदर्शन किए बिना नहीं रहते ।
एक दिन सेठजी ने एक तपस्वी संन्यासी को अपने घर भोजन के लिए आमन्त्रण दिया।
सेठजी ने अत्यन्त प्रादर-सत्कार से संन्यासी का स्वागत किया और अत्यन्त उत्साह से उन्हें भोजन कराया।
. भोजन-समाप्ति के बाद सेठजी अपने बैठक खण्ड में आए, जहाँ हर प्रकार की सुख-सुविधाएँ थीं।
थोड़ी इधर-उधर की बातचीत के बाद सेठजी ने अपने वैभव के प्रदर्शन की टेप चालू कर दी।
शान्त सुधारस विवेचन-३६