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अब ग्रन्थकार महर्षि की लोकस्वरूप भावना में डूब जायें। जैनदर्शन के अनुसार यह विश्व अनन्त है। इसका पार पाना असम्भव है। इस सम्पूर्ण विश्व को दो भागों में बाँटा गया है(१) लोक और (२) अलोक ।
जिस क्षेत्र में धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय, जीवास्तिकाय तथा कालद्रव्य का अस्तित्व है, उसे 'लोक' कहते हैं और जहाँ केवल आकाशद्रव्य ही है, अन्य सभी द्रव्यों का प्रभाव है, उसे अलोक कहते हैं।
इस लोकस्वरूप भावना के अन्तर्गत 'लोक' का ही वर्णन किया गया है।
यह सम्पूर्ण लोक १४ राज (एक माप) प्रमाण होने से इसे १४ राजलोक भी कहते हैं।
इस सम्पूर्ण लोक को सरलता के लिए तीन भागों में बाँटा जा सकता है-(i) अधोलोक, (ii) तिर्छालोक और (iii) ऊर्ध्वलोक।
अधोलोक ७ राजलोक प्रमाण है, तिर्छालोक १८०० योजन प्रमाण है और ऊर्ध्वलोक ७ राजलोक प्रमाण है।।
संभूतला पृथ्वी से ६०० योजन नीचे जाने के बाद अधोलोक का प्रारम्भ होता है। इसमें ७ नरक-भूमियाँ आई हुई हैं
(१) रत्नप्रभा-प्रथम नरक का नाम रत्नप्रभा है। इस पृथ्वी का पिंड एक लाख अस्सी हजार योजन है। इस नरकभूमि का प्रथम खण्ड रत्न से भरपूर होने से इस पृथ्वी का नाम
शान्त सुधारस विवेचन-३६
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