________________
संन्यासी ने पुनः पूछा-"और इस बम्बई में गोरेगाँव कहाँ है ?"
सेठ ने कहा-"इस नक्शे में गोरेगाँव तो नहीं दिख रहा है।" "तो फिर जवाहरनगर दिखता है ?" जवाब मिला-"नहीं"। "प्रापका मकान ?" "नहीं।"
सेठ तुरन्त ही इन प्रश्नों के रहस्य को समझ गए। शामन्दा होकर बोले-"आज आपने मुझे अपनी वास्तविक स्थिति का भान कराया है।"
संन्यासी ने कहा- “सेठजी ! जब इस दृश्यमान विश्व में भी अपना कोई स्थान दिखाई नहीं दे रहा है तो फिर इस विराट ब्रह्माण्ड में अपना क्या स्थान है ? अतः इन तुच्छ सम्पत्तियों का अभिमान करना व्यर्थ है।"
लोकस्वरूप भावना के चिन्तन के अन्तर्गत यह घटना हमें बहुत कुछ सिखाती है। सामान्यतः यह देखा जाता है कि जब व्यक्ति को थोड़ी सी बाह्य भौतिक सम्पत्ति मिल जाती है, तब उसे तुरन्त अभिमान का नशा चढ़ जाता है और वह यह मानने लगता है कि इस दुनिया में मैं भी कुछ हूँ। I am something.
परन्तु जब 'लोकस्वरूप भावना' के चिन्तन द्वारा विराट विश्व का हमें पता चलता है, तब हमें अपनी कूप-मण्डूकता पर हँसी ही पाती है।
शान्त सुधारस विवेचन-३८