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शिकारी, मांसाहारी तथा शराबी भी जब इस धर्म के चरणों में समर्पित हो जाते हैं, तब वे भी पापात्मा मिटकर महात्मा और यावत् परमात्मा बन जाते हैं ।
धर्म के चरणों में आत्मसमर्पण, यह आत्मोत्थान की सर्वश्रेष्ठ कला है। इस कला के जो अभ्यासी हैं, वे अवश्य ही शाश्वत-मोक्षपद के भोक्ता बनते हैं।
द्रगति गहनं जलति कृशानुः ,
स्थलति जलधिरचिरेण । तव कृपयाखिलकामितसिद्धि -
बहुना किं नु परेण ? , पालय० ॥ १३८ ॥
अर्थ-(हे जिनधर्म ! आपकी कृपा से) गहन जंगल नगर बन जाते हैं, अग्नि जल बन जाती है और भयंकर सागर भी पृथ्वी में बदल जाता है। आपकी कृपा से सभी मनोरथ पूर्ण हो जाते हैं। अतः अब दूसरों से क्या ? ।। १३८ ।।
विवेचन धर्म का प्रत्यक्ष-प्रभाव
धर्म के माहात्म्य का गान करने में कौन समर्थ है ? अरे! इस धर्म के प्रभाव से तो भयंकर जंगल भी नगर में रूपान्तरित हो जाते हैं। अग्नि को भीषण ज्वालाएँ भी शीतल जल में परिवर्तित हो जाती हैं, विशाल सागर पृथ्वी में बदल जाता है।
शान्त सुधारस विवेचन-२६