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विवेचन धर्म से भय, शोक का नाश
जो दान, शील, तप और भाव रूप चतुर्मुखी धर्म की शरण स्वीकार करती है, वह आत्मा निर्भीक बन जाती है, उसे इस संसार में किसी प्रकार का भय नहीं रहता है।
जिनेश्वर प्ररूपित धर्म में त्रिभुवन-पूज्यत्व का पद प्रदान करने की ताकत रही हुई है।
कुमारपाल भूपाल की आत्मा पूर्व भव में जयताक नामक खूखार डाकू के रूप में थी, 'मारो, लूटो और मौज करो' यही उसका जीवन-मंत्र बन चुका था, नास्तिकता ने उसकी आत्मा को घेर लिया था। सातों व्यसनों की गुलामी ने उसके जीवन को अघोपतन के गर्त में धकेल दिया था। कुल को कलंकित करने वाले कृत्यों से उसने अपने जीवन को बरबाद कर दिया था।
परन्तु सद्गुरु के संग ने उसकी आत्मा को उत्थान के शिखर पर पहुँचा दिया और अल्प भवों में ही वह आत्मा मुक्ति की अधिकारिणी बन गई।
दुर्गति के द्वार पर खड़ी बंकचूल, अर्जुनमाली, चिलातिपुत्र, रोहिणेय चोर तथा दृढ़प्रहारी आदि की आत्माओं को बचाने वाला कौन ? एकमात्र जिनशासन हो न !
दानधर्म ने शालिभद्र का उद्धार किया, शीलधर्म ने सुदर्शन सेठ का उद्धार किया, तपधर्म ने धन्ना अरणगार को ऊँचा उठाया और भावधर्म ने भरतजी को केवलज्ञान प्रदान किया।
शान्त सुधारस विवेचन-२४