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हे गम्भीर जिनधर्म ! करो ! ( ध्रुवपद ) ।। १३२ ।।
आप मेरा रक्षण करो ! रक्षण
अर्थ- आपकी महिमा के अतिशय से बादलों को श्रेणी सिंचन करती है और सूर्य व
अमृत तुल्य जल से इस पृथ्वी का चन्द्र भी उदय को प्राप्त होते हैं ।। १३३ ।।
विवेचन
धर्म का माहात्म्य
पूज्य
उपाध्यायजी म. जिनेश्वरकथित धर्म की स्तवना करते हुए फरमाते हैं कि हे जिनधर्म ! आप हमारा पालन करो, रक्षण करो ।
इस जगत् में प्रात्मा अनादिकाल से भटक रही है । जन्म - जीवन और मरण के इस चक्रव्यूह में जीवात्मा बुरी तरह से फँसी हुई है ।
शास्त्रकार महर्षियों ने इस संसार को दुःखरूप, दुःखफलक और दुःख-परम्परक कहा है । जीवात्मा के लिए यह संसार दुःखदायी है, दुःख के फल को देने वाला है और अन्त में दुःख की परम्परा को ही बढ़ाने वाला है । चौदह राज - लोक में मोहराजा ने एक ऐसा जाल फैलाया है कि उसमें अत्यल्प जीव ही बच पाते हैं। कदाचित् कोई जीवात्मा संसार-मुक्ति के लिए प्रयत्न कर बैठे तो उसे यह मोहराजा 'सुख' का सुमधुर ( ? ) लालच देकर पुनः नीचे गिरा देता है ।
मोहराजा के चंगुल में से जीवात्मा को बाहर निकालना, शान्त सुधारस विवेचन- १६