________________
'दशवैकालिक' में कहा गया है
धम्मो मंगलमुक्किटु, अहिंसा संजमो तवो।
देवा वि तं नमसंति, जस्स धम्मे सया मरणो॥ अहिंसा, संयम और तप रूप धर्म उत्कृष्ट मंगल है । जिसका मन इस धर्म के विषय में है (अर्थात् जिसके मन में यह धर्म बसा हुमा है ।) उसको देवता भी नमस्कार करते हैं।
जिनेश्वर प्ररूपित धर्म की शरणागति स्वीकार करने वाले के लिए जंगल में भी मंगल ही होता है । उसकी समस्त आपत्तियों का निवारण हो जाता है।
(2) करुणाकेतन-जिनमन्दिर के ऊपर ध्वजा अनिवार्य है। ध्वजा से मन्दिर की शोभा बढ़ती है। जिनधर्म रूपी मन्दिर की ध्वजा 'करुणा' है। करुणा अर्थात् दया। दूसरे के दुःख के निवारण की इच्छा करुणा है। करुणा से हृदय सुकोमल बनता है। करुणायुक्त हृदय में ही जिनधर्म का वास होता है। जिस आत्मा में अन्य प्रात्मा के दुःख के प्रति करुणा नहीं है, वह अात्मा जिनधर्म की प्राप्ति के लिए अयोग्य है ।
(3) धीर--जिनेश्वर का धर्म अत्यन्त ही धीर अर्थात् धैर्य वाला है। अनन्तकाल से हमने इस धर्म की उपेक्षा की थी, किन्तु फिर भी इस धर्म ने अपना धैर्य नहीं खोया। अनन्तकाल के बाद आज भी जो उसकी शरण स्वीकार करता है, उसका अभी भी रक्षरण करने के लिए तैयार है, अर्थात् वह अत्यन्त ही धैर्य वाला है।
(4) शिवसुखसाधन-जिनेश्वर का धर्म प्रात्मा के
शान्त सुधारस विवेचन-२१