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षड्दर्शन समुञ्चय भाग-२, श्लोक-४५-४६, जैनदर्शन
जैसे जगत्कर्ता कहा जाता है, वैसे कुम्भकारादि भी सृष्टिकर्ता कहा जायेगा । (कि, जो किसीको इष्ट नहीं
है।)
"समस्तजगत का परिज्ञान होने से ईश्वर पृथ्वी आदि के कर्ता है।" वैसा दूसरा पक्ष कहोंगे तो सर्वज्ञ योगियों को भी समस्तजगत का परिज्ञान होता है। इसलिए योगीयों में भी जगत्कर्तृत्व की आपत्ति आयेगी। (कि, जो आपको इष्ट नहीं है।)
"ज्ञान-इच्छा-प्रयत्नवाले होने से ईश्वर जगत्कर्ता है।" वैसा तीसरा पक्ष कहोंगे तो भी असाम्प्रत है। क्योंकि ज्ञानादि शरीर के आश्रय रहते है। अशरीरी में ज्ञानादि नहीं रह सकते है। इसलिए आपके ईश्वर अशरीरी होने के कारण उसमें ज्ञानादि रहते नहीं है। "ज्ञानादिपूर्वक के व्यापारवाले ईश्वर जगत्कर्ता है।" ऐसा चौथा विकल्प भी असंभवित है। क्योंकि अशरीरि में काया और वचन का व्यापार का संभव नहीं है।
(ईश्वर को ऐश्वर्य के कारण सृष्टि कर्ता कहना, वह भी युक्तियुक्त नहीं है। क्योंकि आज तक ऐश्वर्य का स्वरुप ही अनिश्चित है। जिससे वह किस तरह से जगत्कर्ता बन सकेगा?) (१) क्या वह ऐश्वर्य ज्ञातृत्व के कारण है। अर्थात् जगत को जानते है इसलिए ऐश्वर्य है ? या (२) क्या कर्तृत्व के कारण ऐश्वर्य है ? अथवा (३) क्या अन्य कोई कारण से ऐश्वर्य है ? ।
यहां ईश्वर में जो ज्ञातृत्व है, वह क्या (१) ज्ञातृत्वमात्र है ? या (२) सर्वज्ञातृत्व मात्र है? । ईश्वर में ज्ञातृत्व मात्र है, ऐसा कहोंगे तो हम भी जैसे कोई-न-कोई वस्तु के ज्ञाता है, वैसे ईश्वर भी केवल ज्ञाता ही बनेगा, ईश्वर नहि बन सकेगा। ईश्वर में सर्वज्ञातृत्व है, ऐसा कहोंगे तो समस्तजगत के पदार्थो को जाननेवाले बुद्ध आदि की तरह सर्वज्ञ ही ईश्वर बन सकेंगे (आपके माने हुए एक ही) ईश्वर नहि बन सकेंगे।
"जगत की रचना करते है अर्थात् कर्तृत्वरुप ऐश्वर्य के कारण वह ईश्वर है।" ऐसा कहोंगे तो कुम्भकारआदि भी कोई-न-कोई अनेक पदार्थो की रचना करता ही है । इसलिए कुम्भकारादि में कर्तृत्वरुप ऐश्वर्य मानना पडेगा और इसलिए वे ईश्वर बन जायेंगे।
इच्छा और प्रयत्न के सिवा ईश्वर में ऐश्वर्य बतानेवाला दूसरा कोई नहीं है, कि जिससे अन्य से ईश्वर के ऐश्वर्य की सिद्धि हो। ___E-24किंच ईश्वरस्य जगन्निर्माणे यथारुचिप्रवृत्तिः १, कर्मपारतन्त्र्येण २, करुणया ३, क्रीडया ४, निग्रहानुग्रहविधानार्थं ५, स्वभावतो ६ वा । अत्राद्यविकल्पे कदाचिदन्यादृश्येव सृष्टिः स्यात् । द्वितीये स्वातन्त्र्यहानिः । तृतीये सर्वमपि जगत्सुखितमेव करोति, अथेश्वरः किं करोति पूर्वार्जितैरेव कर्मभिर्वशीकृता दुःखमनुभवन्ति तदा तस्य कः पुरुषकारः,
(E-24)- तु० पा० प्र० प० ।
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