________________
३६
सरस्वतो
[भाग ३६
जाने का द्वार बन्द कर दिया गया है, क्योंकि इसके भी गिर जाने का भय सदा रहता था। घूम-फिरकर मन्दिर देखा। यह मन्दिर उत्कल की शिल्पकला का एक उत्कृष्ट नमूना है। मन्दिर रथाकार है। इसमें अश्व भी पत्थर के ही बनाये गये हैं, जिनकी संख्या सात है । उत्तर और दक्षिण की तरफ़ पत्थर के बड़े बड़े चक्र (पहिया) हैं । उन्हीं पर यह विशाल मन्दिर स्थित था। यहाँ की छोटी से लेकर बड़ी बड़ी तक-सभी मूर्तियाँ तक्षणकला के उत्कृष्ट नमूने हैं। छोटी-छोटी मूर्तियाँ इस खूबी से सुसजित की गई हैं मानों सजीव हों। प्रत्येक मूर्ति जैसी चाहिए वैसी ही बनाई गई है-कला [प्रधान मन्दिर जो टूट गया है उसके भीतर की वेदी।। की सूक्ष्म से सूक्ष्म बात अंकित करने में कुछ छोड़ा नहीं उन्होंने इसी मैत्रेयवन में चन्द्रभागा के तट पर सर्य गया है। मख्य मन्दिर में जहाँ सूर्यनारायण की प्रतिमा की आराधना की थी और वे अपने रोग से मुक्त हुए थे। थी. अब भी ऐसी सुन्दर मूर्तियाँ हैं जो हाल की बनाई उन्होंने इस स्थान पर सूर्य-ग्रह-मन्दिर बनवाया था और जान पड़ती हैं। मन्दिर के ऊपर शिला की एक बड़ी मूति उसकी पूजा की व्यवस्था भी की थी। केशरी-शासन-काल खड़ी है। मन्दिर के चारों तरफ़ जगह जगह तरह तरह में परन्दर केशरी ने इसी स्थान पर एक नया मन्दिर बनकी मूर्तियाँ रक्खी हुई हैं। कोई नृत्य का प्रदर्शन कर रही वाया था और पूजा का विशाल आयोजन किया था। हैं तो कोई वाद्य-यन्त्रों का। मन्दिर के सामने जो भोगशाला परन्तु दुर्दैव की प्रेरणा से आज वही स्वर्गापम कोणार्क है उसके द्वार पर सिंह की मूति है। उसके पास ही बालुकामय मरुभमि में परिणत हो गया है। पहले यह एक कमल बनाया गया है।
सम्पत्तिशाली नगर और प्रसिद्ध बन्दर ही नहीं था, किन्तु कोणाक एक प्राचीन स्थान है। प्राचीन काल से इसे उत्कल की राजधानी होने का भी गौरव प्राप्त हा यह सूर्योपासना का एक प्रसिद्ध पीठ रहा है और यह था। कालान्तर में जब यहाँ का प्राचीन मन्दिर जरा'मैत्रेयवन' के नाम से विख्यात था । श्री कृष्ण के पुत्र जीर्ण हो गया तब उत्कल-नरेश नरसिंहदेव ने वर्तमान साम्ब जब शापवश कुष्ठ-रोग से ग्रसित हुए थे तब मन्दिर बनवाया था। नरसिंहदेव के राजत्वकाल में ईसवी
सन् १२२५ में इस मन्दिर का निर्माण कार्य प्रारम्भ किया गया था और सन् १२४० में अर्थात् १६ वर्ष में बन कर तैयार हुआ था। उस समय के हिसाब से इसके निर्माण में ४० कोटि रुपया व्यय हुअा था। १,२०० कारीगर तथा मज़दर इसके बनाने में लगे रहे। बड़ा मन्दिर २३० फुट
और भोगशाला १५० फुट ऊँचे थे। बड़ा मन्दिर तो ध्वंस हो गया है। भोगशाला का शिखर भी भग्न हो गया है । तो भी उसकी उँचाई १३० फुट है। मन्दिर १६ फुट की पीठ पर स्थापित है। इसमें जो हाथी थे वे उत्तर
तरफ़ दूर खड़े हैं । दक्षिण तरफ़ भी हैं। जिस आधार [लियाकिया नदी और सागर का संगम । ] पर मन्दिर बनाया गया है उसका भार धारण करनेवाले