Book Title: Ratanchand Jain Mukhtar Vyaktitva aur Krutitva Part 1
Author(s): Jawaharlal Shastri, Chetanprakash Patni
Publisher: Shivsagar Digambar Jain Granthamala Rajasthan
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[पं० रतनचन्द जैन मुख्तार :
मैंने भी उनकी 'प्रत्यक्ष चर्चा' से लाभ उठाया है। करणसूत्र के विषय में उनसे एक विशेष वर्ग सम्बन्धी सूत्र की जानकारी प्राप्त की है जो अब भी स्मृति में है । इनकी "शङ्का समाधान" का अपुनरुक्त तरीके से संकलन होकर प्रकाशित होना चाहिए ।*
कुछ पुस्तकें करणसूत्र आदि के विषय में इनसे लिखवा कर प्रकाशित की जाती तो जनता को बहुत लाभ होता । 'त्रिलोकसार' के हिन्दी अनुवाद में इनका बड़ा हाथ था। बड़े-बड़े ज्ञानी व पूज्यप्रवर मुनिराज भी इनकी 'चर्चा' से लाभान्वित होते थे ।
सत् आगम की उपासना करने से ये सरस्वती पुत्र ही जान पड़ते थे ।
मैं सोचता हूँ पर्यायान्तर में भी आपके द्वारा की जाने वाली तत्त्वचर्चा से अन्य देवों को लाभ निश्चित मिलता होगा।
महोपकारी मुख्तारजी * क्षु० योगीन्द्रसागरजी - पण्डितरत्न, सिद्धान्तवारिधि, जिनागम मर्मज्ञ, देवशास्त्रगुरुभक्त श्रीमान् ब्रह्मचारी रतनचन्दजी जैन मुख्तार वर्तमान युग के एक आदर्श विद्वान् थे । आपकी सरल और मधुर भाषा, विनयभाव, गुरुभक्ति एवं अभीक्षणज्ञानोपयोग हम सबके लिए अनुकरणीय हैं।
विक्रम सम्वत् २०२२ के आश्विन माह में मैं परम पूज्य प्रातः स्मरणीय विश्ववंद्य १०८ आचार्य श्री शिवसागरजी महाराज के दर्शनार्थ श्रीमहावीरजी गया था। उस समय आप भी वहां पधारे थे। आपसे परिचय का सौभाग्य यहीं प्राप्त हुआ। आपकी वक्तृत्व शैली शास्त्रोक्त, विद्वत्तापूर्ण अर्थगाम्भीर्यमय थी। तत्त्वप्रतिपादन शैलो अकाट्य होती थी । आपसे मैंने पंचपरावर्तन के सम्बन्ध में प्रश्न किया था जिसका आपने अत्यन्त सरल शब्दों में उत्तर दिया था।
विक्रम सम्वत् २०२७ में गृह-त्याग कर मैं पूज्य १०८ प्राचार्यकल्प श्री श्र तसागरजी महाराज के संघ में भीण्डर गया। उस समय मुख्तार सा० का भी पदार्पण हुआ था। आप करीब ढाई माह तक संघ में ठहरे थे । प्रातः सामायिक के बाद श्रीजिनेन्द्र पूजन करके ठीक ७ बजे आर्यिका विशुद्धमती माताजी के साथ 'धवला' का स्वाध्याय चलता था। फिर आहार का समय छोड़कर क्रम-क्रम से धवला, गोम्मटसार, लब्धिसार आदि अनेक ग्रन्थों का मुनिराजों के साथ स्वाध्याय चलता था तथा समय-समय पर “शंका समाधान" भी होता था। रात्रि में भी आप प्रा० कल्प श्र तसागरजी महाराज के पास लब्धिसार का स्वाध्याय करते थे और महाराज श्री सुनते थे।
आपका मुझ पर बहुत उपकार है। आचार्यकल्प श्रुतसागरजी के संघ में मुझे लगभग चार वर्ष तक रहने का सौभाग्य मिला। तभी आपके सान्निध्य में चार चातुर्मासों में रहकर ज्ञानार्जन का सौभाग्य भी प्राप्त हुआ।
* 'शङ्कासमाधान' का सङ्कलन इसी ग्रन्थ के शङ्कासमाधान अधिकार में देखिए।
-सम्पादक
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