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( ३१ ) शौरसेनी भाषा के साथ कोई भी संबन्ध प्रतीत नहीं होता, क्योंकि कैकय-पैशाची के साथ शौरसेन पैशाची के जो भेद उन्होंने बतलाए हैं वे मागधी भाषा के ही अनुरूप हैं न कि शौरसेनी के इससे इलको शोर सेन- पैशाचा न कह कर मागव पैशाची कहना ही संगत जान पड़ता है।
प्राकृत ' वैयाकरणों के मत से पैशाची भाषा का मूल शौरसेनी अथवा संस्कृत भाषा है, किन्तु हम पहले यह भलीभाँति दिखा चुके हैं कि कोई भी प्रादेशिक कथ्य भाषा, संस्कृत अथवा अन्य प्रादेशिक भाषा से उत्पन्न नहीं है, परन्तु यह उसी कथ्य अथवा प्राकृत भाषा से उत्पन्न हुई है जो बंदिक युगे में उस प्रदेश में प्रचलित थी । इस लिए पैशाची भाषा
मूल संस्कृत वा शोरलेनी नहीं, किन्तु वह प्राकृत भाषा ही है जो वैदिक युग में भारतवर्ष के उत्तर-पश्चिम प्रान्त की या अफगानिस्थान के पूर्व प्रान्त वर्ती प्रदेश की कथ्य भाषा थी ।
प्रथम युग का पैशाचं भाषा का कोई निदर्शन साहित्य में नहीं मिलता है। गुणाक्य की बृहत्कथा संभवतः इसी प्रथम युग की पैशाचा भाषा में रची गई थी; किन्तु वह आजकल उपलब्ध नहीं है। इस समय हम व्याकरण, नाटक और काव्य में पैशाची भाषा के जो निदर्शन पाते हैं वह मध्ययुग की पैशाची भाषा का है । मध्ययुग की यह पैशाची भाषा ख्रिस्त की द्वितीय शताब्दी से पाँचवीं शताब्दी पर्यन्त
समय ।
प्रचलित थी ।
पैशाची भाषा का शौरसेनी भाषा के साथ जिस-जिस अंश में भेद है वह सामान्य रूप से नीचे दिया जाता है । इसके सिवा अन्य सभी अंशों में वह शौरसेनी के ही समान है। इससे इसके बाकी के लक्षण शौरसेनी के प्रकरण से जाने जा सकते हैं ।
लक्षण
वर्ण-भेद
१. ज्ञ, न्य और राय के स्थान में ज्ञ होता है; यथा - ज्ञा = पञ्ञा; ज्ञान = ज्ञानः कन्यका = कञ्ञ का अभिमन्यु = अभिमन्युः पुण्य = पुष्ञ ।
२. य और न के स्थान में न होता है; जैसे- गुण = गुन; कनक = कनक |
३. त और द की जगह त होता है; जैसे-भगवतो = भगवती; शत- सत; मदन = मतन; देव=तेव ।
४. लकार में बदलता है यथा-सील-सीक कुज कुळ ।
५. हु की जगह
टु तु
और होता है। जैसे—कुटुम्बक, कुटुम्बरु, कुतुम्बक ।
६. महाराष्ट्री के लक्षण में असंयुक्त व्यञ्जन परिवर्तन के १ से १३, १५ और १६ अंकवाले जो नियम बतलाए
भट - भट; मठ = मठ; गरुड = गरुडः प्रतिभास = पतिभास; शबल = सबळ; यशस् = यसः करणीय = करणाय; अंगार = इंगार; या आदि शब्दों का परिणत होता है ति में यथा-पाट
गए हैं वे शौरसेनी भाषा में लागू होते हैं, किन्तु पैशाची मैं नहीं; यथा - लोक = ळोक; शाखा = साखा; कन६ = कनक; शपथ = सपथ; रेफ = रेफ दाह = दाह । याविस सदृश सविस
।
;
७.
नाम-विभक्ति
१. अकारान्त शब्द की पञ्चमी का एकवचन बातो और धातु होता है; जैसे -जिनातो, जिनातु ।
आख्यात
१. शौरसेनी के दि और प्राय की जगह विरागच्छति गच्छते रमति, रमते ।
२. भविष्य काल में स्सि के बदल एय्य होता है; जैसे—भविष्यति = हुवेय्य |
३. भाव और कर्म में ईम तथा इज के स्थान में इय्य होता है; यथा - पश्यते = पठिय्यते, हसिय्यते ।
कृदन्त
=
१. या प्रत्यय के स्थान में कहीं न ओर कहीं खून ओर न होते हैं: यथा पहिला पठितून गत्वा गन्तून, तून त्थून = नष्ट्वा - नत्थून, नट्टून; तष्ट्वा तत्थून, तद्दून ।
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