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नियमसार-प्राभृतम् अनन्तौ च तौ वरौ सर्वोत्तमौ ज्ञानदर्शनस्वभावौ यस्यासौ अनन्तवरज्ञानवर्शनस्वभावस्तम् उपलक्षणमात्रमेतत्, तेन अनन्तसौख्यमनन्तवीयं चापि परिगृह्यते । तेनैतदुक्तं भवति-यः अनन्तचतुष्टयेन युक्तो जिनो वीरस्तं नमस्कृत्य वक्ष्यामि कथ. यिष्यामि नियमसारम् । नियमशब्दोऽत्र रत्नमान लानेए बने अतः निगमसार इत्यनेन भेदाभेदरत्नत्रयस्वरूपकथनाय प्रतिज्ञा सूचिता भवति । किविशिष्टं तं ? केवलिनः सर्वज्ञदेवाः, श्रुतं च तद् द्वादशाङ्गरूपं तेषां केवलिनः सकलश्रुतधरा इत्यर्थः । प्राकृतलक्षणबलात् केवलीशवदीर्घत्वं । केलिभिः श्रुतकेवलिभिश्च यो भणितः स केवलिश्रुतकेवलिभणितस्तम्, सर्वज्ञदेवैः गणधरदेवाविभिश्च यः कथितो नियमस्य सारो रत्नत्रयस्य स्वरूपं तमेवाहं कथयामीत्यर्थः । एतेन ग्रन्थकारः स्वकर्तृत्वं निराकृत्याप्तकर्तृत्वं ख्यापितम् । किमर्थ ? कर्तृप्रामाण्याद्वचनप्रमाणमिति ज्ञापनार्थम् ।
जिनका ज्ञान-दर्शन स्वभाव अनंत और सर्वोत्तम है, ऐसे जिनेंद्रदेव वीर भगवान को यहाँ नमस्कार किया है । यहाँ पर 'ज्ञानदर्शन' ये दो उपलक्षणमात्र हैं, अतः इसी कथन से अनंतसुख और अनंतवीर्य को भी ग्रहण किया गया समझना चाहिए । इससे अर्थ यह हुआ कि 'जो अनंतचतुष्टय से युक्त जिन वीर हैं, उनको नमस्कार करके मैं नियमसार को कहँगा। यहाँ पर 'नियम' शब्द रत्नत्रय के अनुष्ठान में लिया गया है। इसलिए 'नियमसार' इस शब्द से भेदरत्नत्रय और अभेदरत्नत्रय इन दोनों का स्वरूप कहने की प्रतिज्ञा की गई है ।
यह नियमसार ग्रन्थ किन विशेषताओं से सहित है ? यह नियम का सार अर्थात् रलत्रय का स्वरूप केबली सर्वज्ञदेव और द्वादशांग श्रुत के धारी श्रुतकेवली गणघर देव आदि के द्वारा कथित है । इसी को मैं कहूँगा।
इस कथन से यहाँ पर ग्रन्थकार श्री कुदकुद देव ने स्वकर्तृत्व-स्वयं के द्वारा कल्पित का निराकरण करके आप्तकर्तुत्व-सर्वज्ञदेव द्वारा भाषित है, यह बतला दिया है।
ऐसा क्यों?
क्योंकि कर्ता को प्रमाणता से ही बचन में प्रमाणता आती है। इस बात को बतलाने के लिये ही ग्रन्थकार ने यह ग्रन्थ "केवली श्रुतकेवली द्वारा कहा गया है। उसी को मैं कहूंगा। यह बात कही है ।