Book Title: Natyadarpan Hindi
Author(s): Ramchandra Gunchandra, Dashrath Oza, Satyadev Chaudhary
Publisher: Hindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
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साहित्य संशोषकसं० १५० २] 'सुधाकलशास्यसुभाषिताकोश: पं० रामचन्द्रकंतः" इस लेख से प्रतीत होती है । पुरातत्व [पु० ८ म० ४, ४२४, ४२८] में पं० रामचन्द्रकृतः सुधाकलशः १३००' इस लेख से यह भी प्रतीत होता है कि इसमें १३०० श्लोक थे। इसमें प्राकृत श्लोकों की प्रधानता थी। यह ग्रन्थ भी अब तक अनुपलब्ध तथा अप्रकाशित है।
३५. हपपीववषम्-'हयग्रीववध' संस्कृत साहित्य का प्रत्यन्त प्रसिद्ध ग्रन्थ है। इसके रचयिता भतु मेष्ठ है। इनकी भी संस्कृत साहित्य में प्रत्यन्त प्रशंसा पाई जाती है। काव्यमीमांसाकार राजशेखर ने लिखा है-प्रारम्भ में जो प्रादि कवि वाल्मीकि पे. घे ही अगले जन्म में भर्तु मेण्ठ बने थे। उसके बाद भर्तृ मेण्ठ ने भवभूति के रूप में जन्म लिया और भाज वे ही भर्तृ मेण्ठ राजशेखर के रूप में उपस्थित है। इस प्रकार राजशेखर ने भर्तु मेण्ठ के साथ-साथ अपनी भी प्रशसा कर ली है । राजशेखर का श्लोक निम्न प्रकार है
बभूव वल्मीकि भवः पुरा कविः, ततः प्रपेदे भुवि मत मेण्ठताम् । स्थितः पुनर्यो भवभूतिरेखया स वर्तते सम्प्रति राजशेखरः ।।
[बालरामायण १-१६, बालभारत प्र० १२] राजशेखर ने ही दूसरी जगह काव्यमीमांसा में यह लिखा है कि विशाला अर्थात् उज्जयिनी नगरी में प्राकर बड़े-बड़े महाकवियों की परीक्षा होती है कि कौन कितने पानी में है। उसमें माकर ही कालिदास पोर मत मेण्ठ की परीक्षा हुई। यहीं माकर प्रमर, रूप, सूर मोर भारवि का यश फैला, पौर हरिश्चन्द्र तथा चन्द्रगुप्त की परीक्षा भी यहीं माकर हुई। इन सब कवियों में कालिदास, मत मेण्ठ तथा भारवि तीन तो प्रसिद्ध कवि है, शेष प्रत्यन्त प्रप्रसिद्ध कवि है । फिर भी अपने समय में उज्जयिनी में उसका अपना कुछ विशेष गौरव रहा होगा। राजशेखर का यह लोक निम्न प्रकार है
इह कालिदास-मत मेष्ठी पत्रामर-रूप-सूर-मारवयः । हरिचन्द्र-चन्द्र गुप्तो परीक्षिताविह विशालायाम् ॥
[काव्य मीमांसायाम् मं० १० पृ० ५५] राजशेखर भत मेण्ठ के बड़े भत्त और प्रशंसक थे। यह बात इन ऊपर उद्धृत दिए हुए दोनों श्लोकों से स्पष्ट प्रतीत होती है । बल्हण की संगृहीत 'सूक्तमुक्तावली' में भी राजशेखर के नाम से एक पद्य मिलता है, जिसमें राजरोखर ने भत मेण्ठ की सूक्तियों की तुलना 'मणि' अर्थात् हाथी को होकने वाले अंकुश से और कवियों की तुलना कुंजर से अर्थात् हाथी से की है। राजशेखर का कहना है कि जैसे 'सुरिण' के लगने पर हाथी का सिर घूमने लगता है इसी प्रकार समेठ की सूक्तियों को पढ़ कर कविकुंजर मर्थात् महाकवियों के सिर झूमने लगते है। अपनी इस सुन्दर कल्पना को उन्होंने श्लोक में निम्न प्रकार व्यक्त किया है
"वक्रोक्रया मेष्ठराजस्य वहन्त्या मणिरूपताम् ।
मामिला पुन्वन्ति मूर्षानं कविकुनराः॥" [मुक्तमुक्तावली २-६४] शांघरपद्धति में भी भ मेरठ के बाम का उल्लेख निम्न श्लोक में पाया जाता है
मासो रामिल-सोभिती वररुचिः श्री साहसाकविः छोगारजितकालिबास-तरताबा सुमधुच ।।
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