Book Title: Natyadarpan Hindi
Author(s): Ramchandra Gunchandra, Dashrath Oza, Satyadev Chaudhary
Publisher: Hindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
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२. काव्यहेतु
संस्कृत काव्यशास्त्रियों में से जिन्होंने काव्यहेतुमों का निरूपण किया है उनमें से दण्डी वामन, रुद्रट, कुन्तक और मम्मट का नाम उल्लेख्य है। मम्मट ने पूर्ववर्ती काव्यशास्त्रियों का सारग्रहण करते हुए केवल तीन काव्यहेतु निविष्ट किये थे-शक्ति, निपुणता पौर अभ्यास । नाटपदर्पण के रचयितामों ने इस मोर स्पष्ट संकेत नहीं किया। ग्रन्थारम्भ में काव्यनाटप-निर्माण पर चलता-सा प्रकाश डालते हुए वे कहते है कि 'बो कवि निधन से लेकर राजा तक की 'मोचिती' पर्थात् उनके सामान्य व्यवहार से अवगत न होते हुए भी काव्य-निर्माण की कामना करते है, वे विद्वज्जनों के उपहास के पात्र बनते है
पारगद पति पापोषिती न विवन्ति ये।
स्पयन्ति कवित्वाय, रेलनं ते सुमेषसाम् ॥ ११८ तया जो नाटककार न तो गीत, वाच, नुत्य प्रादि जानते है, न लोकस्थिति से परिचित है, और न प्रबन्धों अर्थात नाटकों का पभिनय ही कर सकते है वे भी नाटक-रचना करने के अधिकारी नहीं है
मगीतवाद्यवृत्तमा नोकस्थितिविवो माये।
अभिनेतुंरतुंबवास्ते पहिमुनाः॥ उपयुकदोनों पों में दो काम्पहेतुपों की प्रकारान्तर से पर्चा हुई है : गीत, वाब, नृत (नृत्य) मभिनय मादि का क्रियात्मक मान तपा रंक से राजा-पर्यन्त लोक-व्यवहार से परिचिति। इन दोनों हेतुओं को रुद्रट पोर कुन्तक के शब्दों में अधिकांश सीमा तक 'व्युत्पत्ति' कह सकते है. पौर मम्मट के शब्दों में निपुणता' । पूर्ण सीमा तक इसलिए नहीं कि इन प्राचार्यों ने 'व्युत्पत्ति' और 'निपुणता' के अन्तर्गत लोक-व्यवहारमान के प्रतिरित काम्यग्रन्यों एवं काव्यशास्त्रीय प्रन्यों का पठन-पाठन भी सम्मिलित किया है। प्रस्तु.! रामचनगुणचन्द्र के उपयुकपन से यह समझना चाहिए कि उन्हें केवल 'व्यवहार-माम' को ही काम्यहेतु मानना अभीष्ट होगा भोर वेष दो को, प्रतिमा मौर मम्यास को, नहीं। जैसे कि ऊपर बह पाये है उनका उद्देश्य काव्यहेतुनों का निरूपण करना नहीं था, केबल कवित्व-महिमा प्रकरण में उन्होंने इस प्रसंग की चर्चामात्र कर दी है। निस्सन्देह शक्ति अथवा प्रतिभा काव्य-रचना का अनिवार्य हेतु है, और मोकज्ञान तथा इसके साथ साथ 'अभ्यास' गौण हेतु है, किन्तु इन दोनों से शक्ति का परिकार एवं संस्कार होता है-यह भी प्रसन्दिग्ध रूप से सत्य है। प्रतिमास्य हेतुः । पुत्पत्यम्यासान्या संस्कार्या।
. -काम्यानुशासन (हेमचन), पृष्ठं ६ ३. कवित्व-महिमा
विद्वज्जनों को शास्त्रज्ञान के साथ विकर्म में भी निपुण होना चाहिए, इस सम्बन्ध . में इस ग्रन्थ में इन शब्दों में पर्चा की गयी है-जिस प्रकार लावण्य नारी का प्राण है उसी प्रकार कवित्व सफल विचामों का प्राण है। यही कारण है कि तीनों पियामों प्रति तीनों वेदों के ज्ञाता भी सर्वदा कवित्व-निर्माण की अभिलाषा रखते है । सत्य तो यह है कि विस्व-निर्माण का समाव विद्वानों के लिए एक ऐसा कलंक हैसा कि मासिका के ऊपर कोढ़ का होता है, अथवा यह अमाव ऐसा है जैसे किसी मृगनयनी केसरीर पर कुतों का प्रभाव हो । मोर धायद इसी कलंक
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