Book Title: Natyadarpan Hindi
Author(s): Ramchandra Gunchandra, Dashrath Oza, Satyadev Chaudhary
Publisher: Hindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
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का० २६, सु० २६ ]
प्रथमो विवेकः
क्वचिद् व्यसनाभ्युदययोरुपक्षेपरूपम् । यथा 'तापसवत्सराजे' माणवकः "मच्चो वि एवं सामिणा अपणो पडिकूलमायरंतेरा दढं आयासिदो ! पत्थुदं च ण. रुमा मिस्सेहिं सह संपधारिये सामिभत्तीए मदिविहवस्स य गुरुवं" इत्यादि ।
[ श्रमात्योऽप्येवं स्वामिना आत्मनः प्रतिकूलमाचरता दृढमायासितः । प्रस्तुतं चानेन रुमण्वनमिश्रः सह सम्प्रधार्य स्वामिभक्त्या मतिविभवस्य चानुरूपम् । इति संस्कृतम् ] | क्वचिद् व्यसनोपनिपाते तन्निवृत्त्युपक्रमरूपम् । यथा मुद्राराक्षसे चाणक्य:"आः क एष मयि स्थिते चन्द्रगुप्तमभिभवितुमिच्छति । नन्दकुलकालभुजगीं कोपानलबद्दलधूमलताम् । अद्यापि बध्यमानां वध्यः को नेच्छति शिखां मे ॥ इत्यादि नायक प्रतिनायक - श्रमात्याद्याश्रयेण विचित्ररूपो बीजोपन्यास इति ।
[ श्रथवा माताके द्वारा दुःखको ] भोग रहा है । [ मुझ शापके द्वारा ] केवल दशरथके हो वध्य होने पर भी मैंने यह सारे कुलका विनाश क्यों कर डाला ।
कहीं व्यसन तथा अभ्युदय [अर्थात् पहले होनेवाले व्यसन या विपति और उसके बाद प्राप्त होनेवाले अभ्युदयका प्रदर्शन जिस नाटकको कथा वस्तुमें किया गया है उस प्रकार के नाटक] दोनोंका [बोज रूपमें] उपक्षेप [होता है] जैसे तापसवत्सराजचरितमें मारगवक [प्रविष्ट होकर कहता है कि ]
इस प्रकार स्वामीने [ वत्सराज उदयनने] स्वयं अपने प्रतिकूल श्राचरण करके श्रमात्य को भी अत्यन्त कष्ट दिया । किन्तु उस [अमात्य यौगन्धरायण] ने स्वामिभक्ति और अपने बुद्धिवैभवके अनुरूप [दूसरे मन्त्री] रुमण्वान् मित्रके साथ विचार कर [कार्यका] प्रारम्भ कर दिया । कहीं [प्रारम्भ नायकके ऊपर] विपत्तिके श्राने [की सम्भावना होने ] पर उसकी निवृत्तिका उपक्रम [बीज रूपमें प्रस्तुत किया जाता है] जैसे मुद्राराक्षसमें चारणक्य [कहता है ] - अरे मेरे रहते यह कौन चन्द्रगुप्तको बलपूर्वक अभिभूत करना चाहता है ।
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यह कौन मृत्युका अभिलाषी [वध्यः कः ] नन्दकुल [ का विनाश करनेवाली, उस ] की काली नागिन रूप और [मेरे] प्रचण्ड कोपानलकी नीली धूमरेखा रूप मेरी शिखाको प्राज [ नन्दकुलका नाश हो जानेपर ] भी बंधने नहीं देना चाहता है ।
इत्यादि । [ इस प्रकार ] नायक- प्रतिनायक श्रमात्य आदिके श्राश्रयसे [नाटकके] बीजका प्रारोपण नाना प्रकारसे किया जा सकता है ।
मुद्राराक्षस में राक्षस और मलयकेतु मिलकर चन्द्रगुप्तको राज्यच्युत करने की योजना बना रहे हैं । नन्दकुलका विनाश कर चाणक्यने ही चन्द्रगुप्तको राजा बनाया है । इसलिए जब उसे यह मालूम होता है कि मलयकेतुके साथ मिलकर नन्दकुलका पुराना मन्त्री राक्षस चन्द्रगुप्तको राज्यच्युत करना चाहता है तब उसने यह श्लोक कहा है । यही श्लोक मुद्राराक्षस नाटकका बीजभूत है । इसीके शाखा प्रशाखात्रोंके रूपमें आगे कथाभागमें चारणक्य तथा राक्षस दोनोंके प्रयत्नोंका परिचय मिलता है । उसका परिणाम अन्त में राक्षसका चारणक्यको श्रात्मसमर्पण होता है ।
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