Book Title: Natyadarpan Hindi
Author(s): Ramchandra Gunchandra, Dashrath Oza, Satyadev Chaudhary
Publisher: Hindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi

View full book text
Previous | Next

Page 521
________________ ४०४ ] नाट्यदर्पणम् [ का० २०८-१० सू० २६६ [ सूत्र २६६-१] – विष्कम्भक - प्रवेशकरहितो यस्त्वेकभाषया भवति । अप्राकृत संस्कृतया स सट्टको नाटिका ।। ५५ ।। [२] - श्रीरिव दानवशत्रोर्यस्मिन् कुलांगना पत्युः । वर्णयति शौर्य-धैर्यप्रभृति गुरणानग्रतः सख्याः ॥ पत्या च विप्रलब्धा गातव्ये तं क्रमादुपालभते । 'श्रीगदित 'मिति मनीषिभिरुदाहृतोऽसौ पदाभिनयः ॥ ॥५६॥ [१] सट्टक विष्कम्भक तथा प्रवेशकसे रहित, प्राकृत-रहित केवल एक भाषामें [प्रर्थात् संस्कृत भाषा वाला प्राकृत से रहित और प्राकृत वाला संस्कृतसे रहित] बनाया गया, नाटिका के सदृश रूपक 'सट्टक' नामसे कहा जाता है ॥ १ ॥ साहित्य - वर्परकारने सट्टकका लक्षण निम्न प्रकार किया है-सट्टकं प्राकृताशेष पाठ्य स्यादप्रवेशकम् । न च विष्कम्भोऽप्यत्र प्रचुरश्चाद्भुतो रसः ॥ २७६ ॥ का जवनिकाख्याः स्युः स्यादन्यन्नाटिकासमम् । यथा कर्पूरमंजरी । साहित्यदर्पणकारके अनुसार सट्टकमें सारा पाठ्य भाग केवल प्राकृत भाषा में लिखा जाता है, किन्तु नाट्यदर्पणकार के अनुसार संस्कृत या प्राकृत किसी भी एक भाषामें लिखा जा सकता है । जो सट्टक प्राकृत भाषा में लिखा जाए वह संस्कृत भाषासे रहित हो और जो संस्कृत में लिखा जाए वह प्राकृत भाषासे रहित हो । यह नाट्यदर्पणकार के प्रप्राकृत संस्कृतया एकभाषया भवति' का अभिप्राय प्रतीत होता है । [२] श्रीगदित इसमें भी जहाँ दानवशत्रु प्रर्थात् विष्णुकी पत्नी लक्ष्मीके समान कोई कुलांगना अपने पतिके शौर्य, धैर्य प्रादि गुगोंका सखीके सामने बखान करती है । और पतिके द्वारा ठगी जानेपर किसी गीतमें उसको उपालम्भ देती है उसको विद्वानोंने 'श्रीगति' कहा है । और वह [ पदार्थोंका अभिनय न होकर केवल ] पदाभिनयात्मक होता है ।। ५६ ।। साहित्यदर्पणकारने 'श्रीगदित' का लक्षण निम्न प्रकार किया हैप्रख्यातवृत्तमेकांक प्रख्यातोदात्तनायकम् | प्रसिद्धनायिकं गर्भ-विमर्शाभ्यां विवर्जितम् ॥ २६३ ॥ भारतीवृत्तिबहुलं श्रीतिशब्देन संकुलम् । मतं श्रीगदितं नाम विद्वद्भिरूपरूपकम् ॥ २६४ ॥ श्रीरासीना श्रीगदिते गायेत् किंचित् पठेदपि । एकांको भारतीप्राय इति केचित् प्रचक्षते ॥ २६५ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 519 520 521 522 523 524 525 526 527 528 529 530 531 532 533 534 535 536 537 538 539 540 541 542 543 544 545 546 547 548 549 550 551 552 553 554