Book Title: Natyadarpan Hindi
Author(s): Ramchandra Gunchandra, Dashrath Oza, Satyadev Chaudhary
Publisher: Hindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
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२१४ ]
नाट्यदर्पणम्
तेन द्वावप्यत्रोत्पाद्यौ ।
'कैशिकी' वक्ष्यमाणलक्षणा, सा 'मुख्या' प्रधानं यस्याम् । मुख्यत्वं च शेषवृत्त्यपेक्षया बाहुल्यम् । तत एव गीत-नृत्त वाद्य- हास्यादीनां शृङ्गाराङ्गानां प्राचुर्यम् । पूर्वरूपद्रयं 'नाटक' 'प्रकरणं' च । तस्मादुत्थितमुत्थानं यम्याम् । कैशिकीप्राधान्याच्च यत् स्त्रीप्रायं कामफलं 'नाटक', 'प्रकरणं' च किश्चिन, तदिह ग्राह्यम् । अन्येषामनुरूपत्वाभावात् । एतद्वयोत्थितत्वेन चावस्था- सन्धि-सन्ध्यंग-बीज-बिन्दु-पताका-प्रकरी-पताकास्थानक अंक प्रवेशक विष्कम्भक इतिवृत्तभेदादीनि, उभय भेदसाधारणानि लभ्यन्ते । तत्र 'नृपेशा' इति नाटकधर्मः । तत एव नायकोऽकल्पितः । 'कल्प्यार्था' इति प्रकरणधर्मः । एतावल्लक्षणम् ॥ [ ५ ] ७८ ।।
'अख्याति ख्यातितः' इति । इह नाटिकायां नायिकाया द्वयं कन्या देवी चेति युगपत् । अपरिणीता कन्या । अन्तःपुरसंगीतक भेदभिन्ना । परिणीता तु देवी । तयोः व्युत्पत्ति तथा श्रर्थ्यते श्रनेनेति अर्थ' इस प्रकारकी कररण-परक व्युत्पत्ति हो सकती है । इसलिए ] कर्म और करण - परक [ द्विविध] व्युत्पत्तियोंके काररण फल और उपाय दोनों ''अर्थ' होते हैं [अर्थात् कर्म व्युत्पत्ति के अनुसार फलको 'अर्थ' कहा जाता है और कररण व्युत्पत्तिके अनुसार 'उपाय' को 'अर्थ' कहा जा सकता है ।
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[ का० ७१, सू० १२१
इसलिए [नाटिका में फल और उपाय ] ये दोनों कल्पित होते हैं। [यह अभिप्राय है ] । 'केशिकी' का लक्षण श्रागे किया जायगा । वह जिसमें मुख्य अर्थात् प्रधान हो [ यह 'कैशिकमुख्या' का अर्थ है ] । अन्य [ भारती प्रारभटी और सात्त्वती ] वृत्तियोंको अपेक्षा [कैशिकीका] बाहुल्य ही [ उसकी] मुख्यता है । इसीलिए [ नाटिकामें ] गीत, नृत्त, वाद्य और हास्य प्रादि शृंगारके अंगोंकी प्रचुरता रहती है । पहिले कहे हुए जो दो रूपकभेद प्रर्थात् नाटक और प्रकररण उनसे जिसकी उत्पत्ति होती है [ वह नाटिका होती है यह 'पूर्वरूपदोत्थिता' पदका अर्थ है ] । कैशिकीको प्रधानता होनेके काररण जो कोई नाटक अथवा प्रकरण स्त्री- बहुल और कामफल वाला हो उसका ही [नाटिकाकी प्रकृतिके रूपमें] ग्रहरण करना चाहिए । अन्य [ नाटक या प्रकररण] के [ नाटिकाके स्वरूप के] अनुकूल न होनेसे [ अन्य प्रकार के नाटकादिको नाटिकाकी प्रकृति नहीं माना जा सकता है ] । इन [नाटक तथा प्रकरण] दोनों उत्थित होने के कारण अवस्था, सन्धि, सन्ध्यंग, बीज, बिन्दु, पताका, प्रकरी, पताकास्थानक, अंक, प्रवेशक, विष्कम्भक, और कथावस्तुका भेव श्रादि 'नाटक' तथा 'प्रकरण' दोनोंसे मिलते-जुलते ही [नाटिका में] लिए जाते हैं । नाटिका में 'नृपेशा' [अर्थात् राजा नायक होता है] यह नाटकका धर्म है । इसीलिए नायक कल्पित नहीं होता है । और 'कल्प्यार्था' यह 'प्रकरण' का धर्म है । [ 'अर्थ' शब्द से व्युत्पत्तिभेव द्वारा फल और उपाय दोनोंका ग्रहण होता है यह बात भी कह चुके हैं । इस कारण नाटिकामें फल और उपाय दोनों कल्पित होते हैं । यह 'कल्पयार्या' पदका अभिप्राय है । इस प्रकार नाटिका में 'नाटक' तथा 'प्रकरण दोनोंके धर्म पाए जाते हैं इसलिए नाटिकाको 'पूर्वरूपद्वयोत्थिता' कहा है ] इतना ही [नाटिकाका] लक्षरण है [ प्रागे उसके भेद कहे हैं। लक्षणभाग यहाँ समाप्त हो गया है ] ।। [५] ७० ॥ 'प्रख्याति ख्यातित' इसका यह अभिप्राय है कि---इस नाटिका में कन्या श्रौर देवी दोनों एक साथ नायिकाएँ होती हैं । प्रपरिणीता [स्त्री] 'कन्या' होती है । और वह अन्तःपुरके
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