Book Title: Natyadarpan Hindi
Author(s): Ramchandra Gunchandra, Dashrath Oza, Satyadev Chaudhary
Publisher: Hindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
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का०८४, सू० १३२ ] द्वितीयो विवेकः
[ २३१ वैमुख्यं बहुमानाभावः कार्य प्रयोजनं यस्य । प्रहसनेन हि पाखण्डिप्रभृतीनां चरितं विज्ञाय विमुखः पुरुषो न भूयस्तान् वञ्चकानुपसर्पति । वीथ्यङ्गाहौरादिभिर्यथायोगं संयुक्तं च विधेयम् । कोलीनं जनवादः तत् ख्यातं प्रसिद्धम् । दम्भश्च आत्मन्यतथ्यसाधुत्वारोपणम्प: स्यातोऽत्र विधेयः । यथा शाक्यानां स्त्रीसम्पर्को गर्हणीयो न चौर्यम् । एवं दम्भोऽपि । हास्यो रसो अङ्गी मुख्यो यत्र । भाणवच्च सन्धी मुखनिर्वहणे । एकोऽङ्कः भारती वृत्तिश्च निबन्धनीया। हास्यरसप्राधान्येऽप्यत्र न कैशिकी वृत्तिः । निन्धपाखण्डि-प्रभृतीनां शृङ्गारस्यानौचित्येनाभावात् केवलहास्यविषयत्वमेव । अत एव लास्याङ्गान्यन अल्पान्येवेति । 'द्विधा' द्विप्रकारकं शुद्धं सङ्कीर्णं चेति ।। [१८] ८३॥
अथ नायककथनद्वारेण शुद्धमाह[सूत्र १३२]-निन्द्यपाखण्डि-विप्रादेरश्लीलासभ्यवजितम् ।
परिहासवचःप्रायशुद्धमेकस्य चेष्टितम् ॥[१६] ८४॥ निन्द्याः शीलादिना गर्हणीयाः, पाखण्डिनः शाक्य-भगवत्तापसादयः, विप्रा रूप दो] संधियों [एक] अङ्क, तथा [भारती] वृत्ति वाला हास्यप्रधान [रूपकभेद] 'प्रहसन' [शुद्ध तथा संकीर्ण भेदसे दो प्रकारका होता है। [१८] ८३ ।
[पाखण्डियों आदिके प्रति वैमुख्य अर्थात् आदरका अभाव [उसका उत्पादन] जिसका कार्य अर्थात् प्रयोजन है । प्रहसनके द्वारा पाखण्डी आदिके चरितको समझकर, मनुष्य उन ठगोंके पास फिर नहीं जाता है [इसलिए प्रहसनको पाखण्डियोंके प्रति वैमुख्यकारी कहा गया है] । व्यवहारादि वीथ्यङ्गोंसे युक्त [प्रहसनको] बनाना चाहिए । कोलीन अर्थात् लोकापवाद । वह जिसमें ख्यात अर्थात् प्रसिद्ध हो। और अपने में झूठे साधुत्वके प्रदर्शन रूप दम्भको इसमें प्रकाशित करना चाहिए। जैसे बौद्धोंमें स्त्री-सम्पर्क निन्दनीय है चोरी नहीं [इस प्रकार का जनापवाद रूप कोलीन प्रसिद्ध है। इस प्रकार [अतथ्य साधुत्व प्रदर्शन रूप] दम्भ भी [प्रसिद्ध करना चाहिए] । हास्यरस जिसमें अङ्गी अर्थात् मुख्य हो [इस प्रकारका प्रहसन होता है] । भारणके समान मुख तथा निर्वहरण नामक दो ही संधि [इस प्रहसनमें भी होते हैं । एक ही अंक, और भारती वृत्ति [भी भागके समान ही निबद्ध करनी चाहिए। हास्य रसकी प्रधानता होनेपर भी इसमें कैशिको वृत्ति नहीं होती है। क्योंकि निन्दनीय पाखण्डी आदिमें शृङ्गाररसका अनौचित्य होनेसे उनमें केवल हास्य-विषयत्व ही होता है। इसीलिए प्रहसनमें शृङ्गारकी प्रधानता न होने के कारण इसमें थोड़े ही लास्यांगोंका वर्णन होता है । वह दो प्रकारका अर्थात् शुद्ध और सङ्कीर्ण दो प्रकारका होता है ।[१८]८३॥
अब नायकके कथन द्वारा शुद्ध [प्रहसन को कहते हैं---
[सूत्र १३२] - निन्दा योग्य पाखण्डी ब्राह्मण आदि किसी एकका अश्लीलता तथा असभ्यतासे रहित परिहास वचनोंसे पूर्ण चेष्टित [जिसमें हो वह शुद्ध प्रहसन कहलाता है । [१६] ८४ ।
निन्दनीय अर्थात् गहित प्राचार वाले, पाखण्डी अर्थात् बौद्ध और ब्राह्मरण तपस्वी प्रादि [ग्रंथकार जैन हैं इसलिए उन्होंने बौद्ध तथा भगवत्तापस अर्थात् ब्राह्मण तापस प्रादि १. म्पको।
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