Book Title: Natyadarpan Hindi
Author(s): Ramchandra Gunchandra, Dashrath Oza, Satyadev Chaudhary
Publisher: Hindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
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नाट्यदर्पणम् [ का० १०१, सू० १५३ वाक्प्रपठचैकसारेण निर्विशेषाल्पवृत्तिना।
स्वामिनेव नटत्वेन निर्विरणाः सर्वथा वयम् ॥ तद् गच्छतु भवती पुत्रं मित्रं वा कमपि पुरस्कृत्य क्रमागतामिमां कुजीविकामनुवर्तयितुम् ।" ततः क्रमादाह
"परिग्रहोरुमाहौघाद् गृहसंसारसागरात् ।
बन्धुस्नेहमहावादिदमुत्तीर्य गम्यते ॥" अत्र स्वजीविकां दारेषु निक्षिप्य परलोकहेतुकार्यकरणं स्वयमाश्रितम् । अपरे तु प्रस्तुतेऽत्यस्मिन् कार्ये यदन्यत् स्वयमेव सिद्धयति तदवलगितम् । यथा छलितरामे
"रामः-लक्ष्मण ! तातविप्रयुक्तामयोध्या विमानस्थों नाहं प्रवेष्टुःशक्नोमि । तदवतीर्य गच्छामि।
कोऽपि सिंहासनस्याधः स्थितः पादुकयोः पुरः ।
जटावानक्षवलयी चामरीव विराजते । अत्र भरतदर्शनकार्यान्तरस्यैवमेव सिद्धिरिति । (१३) अथावस्पन्दितम्[सूत्र १५३]-स्वेच्छोक्तस्यान्यथाख्यानं यदवस्पन्दितं तु तत् ॥[३६]
१०१॥ बात बनाना ही जिसका सार है इस प्रकारके, और साधारण-सी अल्प वृत्तिवाले स्वामी जैसे नट-व्यापारसे हम सर्वथा खिन्न हो गए हैं।
इसलिए पुत्र या किसी मित्रको लेकर तुम कुलक्रमागत इस कुजीविकाका अनुसरण करनेके लिए जागो [मैं तो नहीं जाऊंगा] ।
उसके बाद फिर क्रमसे [मागे चलकर कहता है
परिवार रूप महान् ग्राहोंसे भरे हुए और बन्धुस्नेह रूप भयंकर भवरों वाले इस गृहस्थ रूप संसार सागरको पार करके मैं तो जाता हूँ।
यहाँ अपनी जीविकाको स्त्रीके ऊपर छोड़कर [नट] स्वयं परलोकके हेतुभूत कार्योके करनेमें लग जाता है।
दूसरे लोग तो जहाँ अन्य कार्यके प्रस्तुत होनेपर अन्य कार्य स्वयं ही सिद्ध हो जाय उसको 'प्रवलगित' कहते हैं। जैसे छलितराममें
राम-हे लक्ष्मण ! पिताजीसे शून्य अयोध्यामें, मैं विमानपर बैठा हुमा नहीं जा सकता हूँ इसलिए उतरकर चलूंगा।
[मरे यहां तो सिंहासनके नीचे पादुकाओंके सामने जटाधारण किए हुए, अक्षमालायुक्त, और चमर-युक्त-सा कोई बैठा हुआ है। (१३) अवस्पन्दित नामक तेरहवाँ वीथ्यङ्ग
अब 'प्रवस्पन्दित' [का लक्षण प्रादि करते हैं][सूत्र १५३]--स्वेच्छासे [अर्थात् उस विशेष अभिप्रायसे न कहे हुए [ चन] का
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