Book Title: Natyadarpan Hindi
Author(s): Ramchandra Gunchandra, Dashrath Oza, Satyadev Chaudhary
Publisher: Hindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi

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Page 509
________________ नाट्यदर्पणम [ का० १६२, सृ०२८ नायिकानां सहायिन्य उच्यन्ते [ सूत्र २८८ ] --सहायिन्यस्तु धात्रेयी लिंगिनी प्रातिवेशिकाः । शिल्पिनी चेटिका - सख्यो गुप्ता दक्षा मृदु-स्थिराः ॥ [३८] १६१ ॥ धात्री स्तन्यदायिनी । लिंगिनी परिव्राजिकादिलिंगवती । प्रातिवेशिका निकटावसथा । शिल्पिनी चित्रादिशिल्पकारिका । चेटिका दासी । सखी समानगुणा मैत्र्यमुपगना । एवमादिकाः प्रियघटने सहायिन्यः । एताश्च 'गुप्ता' रहस्यधारणसमर्थाः । वृक्षा देश-काल- समयादिविदः । मृद्व यो अनहंकृताः । स्थिराश्चापलवर्जिताः । एवमन्येऽपि गुणा द्रष्टव्या इति ।। [३८] १६१ ॥ अथ सामान्येन भाषाविधानमुच्यते ३६२ ] [ सूत्र २=६ ] - देवानीचनृरणां पाठः संस्कृतेनाथ जातुचित् । महिषी - मन्त्रिजाया- पण्यस्त्रीणामव्याजलिंगिनाम् ॥ [३६] १६२ ॥ [वित्य ] का उल्लङ्घन किए बिना धीरोद्धत श्रादि नायकोंके साथ कुलजा प्रादि नायिकाओं का नाटकादि में वर्णन करना चाहिए । [३७] १६० ॥ अब इन नायिकाओंकी सहायिकाओंको कहते हैं [ सूत्र २८८ ] - धाय, परिव्राजिका, पड़ोसिन, शिल्पिनो, दासी और सखो जो [गुप्ता अर्थात्] रहस्यको धारण करनेमें समर्थ, चतुर, श्रहंकाररहित और चपलतारहित हों इनकी सहायिकाएं होती हैं । [३८] १६१ । धात्रेय अर्थात् दूध पिलाने वाली धाय । लिंगिनी अर्थात् परिवजिका श्रादिके चिह्नों को धारण करने वाली । प्रतिवेशिका अर्थात् समीप रहने वाली पड़ोसिनो । शिल्पिनी प्रर्थात् चित्रादि शिल्पकी रचना करने वाली । चेटी श्रर्थात् दासी । सखी प्रर्थात् समान गुण वाली और मित्रताको प्राप्त स्त्री। इस प्रकार की स्त्रियाँ प्रियके साथ मिलन करने में सहायिका होती हैं। ये सब गुप्ता अर्थात् रहस्यको छिपा सकने में समर्थ, दक्षा प्रर्थात् देश, काल, श्राचार श्रादिको समझने वाली, मृदु श्रर्थात् ग्रहंकाररहित प्रौर स्थिरा प्रर्थात् चपलतारहित होनी चाहिए । इसी प्रकारके अन्य गुरण भी [ सहायिकाओं में ] समझने चाहिए ॥ [ ३८ ] १६१ ॥ अब सामान्य रूप से भाषाविधानको कहते हैं [ तत्र २८६ ] -- देवताओं प्रौर नीचोंको छोड़कर अर्थात् उत्तम तथा मध्मम पुरुषोंके पाठ संस्कृत में [ होना चाहिए। और कभी-कभी पटरानी, मन्त्रि-पत्नीवेश्यानोंका तथा | लिंगिनी पदमें लिगिनश्च लिगिन्यश्च अर्थात् पुरुष तथा स्त्री-रूप दोनों प्रकारके लिगियोंमेंसे एक शेष हो जानेसे ] परुष तथा स्त्री-रूप दोनों प्रकारके परिवाजकों दम्भ-रहित [प्रर्थात् मुनि, बौद्ध, भिक्षु, श्रोत्रिय श्रादि] द्वारा [ भी संस्कृत का प्रयोग किया जाना चाहिए] । ३६ [१६२] ।। Jain Education International • For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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