Book Title: Natyadarpan Hindi
Author(s): Ramchandra Gunchandra, Dashrath Oza, Satyadev Chaudhary
Publisher: Hindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi

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Page 508
________________ का० १६०, सू० २८५-८७ ] चतुर्थो विवेकः [ ३६१ अथ माधुर्योदायें[सूत्र २८५]-सौम्यं तापेऽपि माधुर्यम्, औदार्यमुचिताच्युतिः ॥ [३६] १८६ ॥ . शोक-क्रोध-भय-अमर्ष-ईर्ष्यादिजः सन्तापस्तापः । अपि शब्दाद् ब्रीडा-रत्यादिजे अस्वास्थ्ये ऽपीति । तापे ऽपि सत्युचितस्य विनयादिकस्य अच्युतिरपरित्यजनं औदार्यम् । माधुर्य श्राकाराविकृतिः इत्यनयोविशेष इति ॥ [३६] १८६ ।। अथ धैर्य-प्रागल्भ्ये[सूत्र २८६]-चेतोऽविकत्थनं धैर्यं प्रागल्भ्यं कौशलं रते। अविकत्थनं आत्मश्लाघा-चापलाभ्यां रहितं चेतो धैर्यमिति । कौशलं वैशारा, रते सुरतक्रियायां यत् तत् प्रागल्भ्यम् । एते यत्नमन्तरेण पुरुषोपभोगनिष्पन्नाः स्त्रीणां सप्त गुणा इति । अथ एवंविधालङ्कारवतीनां स्त्रीणां नायकेषु विनियोगमाह-, [सूत्र २८७]-यथौचित्यं च नेतृणां नायिकाः, कुलजादयः ॥[३७१६० ___औचित्यं प्रकति-अवस्था आचार-देशकालाद्यविरोधः। तदनतिक्रमेण धीरोद्धतादीनां नायकानां कुलजादयो नायिका नाटकेषु निबन्धनीया इति ।। [२७] १६०॥ अब प्रागे 'माधुर्य' और 'प्रौदार्य' दोनोंके लक्षण करते हैं] [सूत्र २८५]-तापके होनेपर भी सौम्यता माधुर्य कहलाता है । और उचित मार्गसे पतित न होना 'प्रौदार्य' कहलाता है। [३६] १८६ । शोक, क्रोध, भय, अमर्ष और ईर्ष्या दिसे उन्पन्न होने वाला सन्ताप यहाँ 'ताप' [माना गया है । 'मपि' शब्दसे लज्जा और रत्यादिसे उत्पन्न अस्वस्थताक भी ग्रहण होता है । इस तापके होनेपर भी [सौम्यताका बना रहना 'माधुर्य' कहलाता है । और तापके होनेपर भी विनय आदि रूप उचित बातोंका परित्याग न करना औदार्य' कहलाता है। प्राकारमें विकार का उत्पन्न न होना माधुर्य है [ और मनमें विकारका उत्पन्न न होना प्रौदार्य है ] यह इन दोनोंका भेद है ।। [३६] १६६॥ अब प्रागे 'वैर्य' तथा 'प्रगल्भता' [दोनोंका लक्षण करते हैं]-- [सूत्र २८६]-[प्रात्मश्लाघा और चपलतासे रहित वित्तावस्थाका नाम 'धैर्य' है और सुरत-व्यापार में निपुणताफी प्राप्ति 'प्रगल्भता' कही जाती है। प्रविकत्या अर्थात् प्रात्मश्लाघा और चपलतासे रहित चित्तावस्थाका नाम 'धैर्य' है। प्रौर 'रते' अर्थात् सुरत-व्यापारमें जो कौशल अर्थात् निपुणता वह 'प्रागल्भ्य' कहलाता है। ये सात गुण पुरुषोपभोगके द्वारा स्त्रियों में बिना यत्नके स्वयं ही उत्पन्न हो जाते हैं। अब इस प्रकारके [१०+७=१७] अलंकारों से युक्त नायिकाओंका नायकोंके साथ सम्बन्ध दिखलाते हैं ---- [सूत्र २८७]---ौचित्यके अनुसार कुलजा आदि नायिकाएं नायकोंके साथ विनिपुक्त फरनी चाहिए। [३५] १९० । प्रौचित्य अर्थात् प्रकृति, अवस्था, प्राधार, देश, काल, मादिके साथ प्रविरोष । उस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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