Book Title: Natyadarpan Hindi
Author(s): Ramchandra Gunchandra, Dashrath Oza, Satyadev Chaudhary
Publisher: Hindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi

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Page 507
________________ नाट्यदर्पणम् L का० १८८, सू० २८२-८४ किलकिंचितम् - [ सूत्र २=२ ] - मुहुः स्मिताऽनुकम्पादेः संकरः किलकिचितम् । आदिशब्दाद् भय हसित-श्रम- रोष-गर्व -दुःखाभिलाषादिग्रहः । गर्वाद् वारं वारं स्मितादीनां संकीर्णतया योषिता यत्करणं तत् किलकिञ्चितम् । एते दश स्वाभाविका भुक्तायामभुक्तायां च योषिति रतिभावोद्बोधाद् भवन्तीति । यथायत्नजेषु सप्तसु शोभा प्रथमं लक्ष्यते ३६० 1 [ सूत्र २८३ ] - प्रोज्ज्वल्यं यौवनादीनामथ शोभोपभोगतः । [३५] १८८ । यौवनस्य, आदिशब्दाद् रूप - लावण्यादीनां च पुरुषेणोपभुज्यमानानां यदौज्ज्वल्यं छायाविशेषः सा शोभा । अथेति स्वाभाविकानन्तर्यार्थ इति ।। [३५] १८८ ॥ अथ कान्ति- दीप्ती - [ सूत्र २८४ ] —सा कान्तिः पूर्णसम्भोगा दीप्तिः कान्तेस्तु विस्तरः । शोभैव व रागावतारघना कान्तिः । कान्तिरेव चातिविस्तीर्णा दीप्तिः । यौवनादीनामौज्ज्वल्यस्य मन्द-मध्य तीव्रावस्थाः क्रमेण शोभा - कान्ति-दीप्तय इत्यर्थः इति । aa or 'feofiचित' [का लक्षरण करते हैं ] [ सूत्र २८२ ] - |-- बार-बार हँसने, रोने शोर कम्पन प्राविका सम्मिश्रण 'किल किंचित' कहलाता है । प्रादि शब्दसे भय, हास्य, श्रम, रोष, गर्व, दु:ख और प्रभिलाष श्रादिका ग्रहण होता है । गर्वके कारण स्त्रियोंके द्वारा हंसने रोने श्राविका जो बार-बार संकीर्ण रूपसे किया जाना है वह 'किलकिचित' कहलाता है [यह अभिप्राय है । भुक्ता तथा प्रभुक्ता दोनों प्रकार की स्त्रियोंमें रतिभावका उदय होनेपर ये वश स्वाभाविक धर्म उदय होते हैं । अब आगे बिना यत्नके उत्पन्न होने वाले सात धर्मोमेंसे पहले 'शोभा' का लक्षण करते हैं [ सूत्र २८३ ] - उपभोगके बाद योवन प्राविकी उज्ज्वलता 'शोभा' कहलाती है । [३५] १८८ । अनु० - यौवनका, औौर आदि शब्दसे रूप लावण्याविकी पुरुषके द्वारा भोगे जाने पर जो उज्ज्वलता अर्थात् सौन्दर्यातिशय उसको 'शोभा' कहते हैं [यह अभिप्राय है ] । [ 'श्रथ क्षोभोपयोगत:, में प्रयुक्त ] 'प्रय' हाब्व स्वाभाविक श्रानन्तर्य प्रर्यका बोधक है। [अर्थात् पहले freen fee दस स्वाभाविक धर्मोके बाद शोभाका लक्षण किया जा रहा है ] ॥ [३५] १८८ ॥ अब आगे 'कान्ति' और 'दीप्ति' [दोनों का लक्षरण करते हैं] [ सूत्र २८४ ] -- पूर्ण विस्तारको प्राप्त हो जानेपर वह शोभा हो 'कान्ति' कहलाती है । और 'कान्ति' का भी विशेष विस्तार 'दीप्ति' कहलाता है । - अत्यन्त अनुरागातिशयके कारण घनताको प्राप्त शोभा ही 'कान्ति' कहलाती है और अत्यन्त विस्तारको प्राप्त हो जाने वाली 'कान्ति' हो 'दीप्ति' कहलाती है । अर्थात् योवन urfast उज्ज्वलताको मन्द, मध्य और तीन अवस्थाएं हो क्रमशः शोभा, कान्ति और दोति कहलाती हैं यह अभिप्राय है ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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