Book Title: Natyadarpan Hindi
Author(s): Ramchandra Gunchandra, Dashrath Oza, Satyadev Chaudhary
Publisher: Hindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
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का० १४५, सू० २१२-१३ ] तृतीयो विवेक:
[ ३४५.
श्रभिमुख्यमौत्सुक्यम् । स्मरणमिष्टस्य । आद्यशब्दान्मनोज्ञदिदृक्षा अभिष्वङ्गलोभादेर्विभावस्य ग्रहः । त्वरा मनो-वाक्- कायदृष्टि - चापलम् । श्रादिशब्दात् कृत्यविस्मरण- दीर्घनिःश्वास-असम्बद्धवचन- स्वेद- हत्तापादेरनुभावस्य ग्रह इति । (३०) अथावहित्था -
[ सूत्र २१२] - धाष्टर्यादविक्रिबारोधोऽवहित्थास्त्र क्रियान्तरम् ॥
।। [४२] १४४ ।।
'घाष्ट्रीय " प्रागल्भ्यम् | आदिशब्दाद् भय लज्जा-गौरव- कुटिलाशयत्वा देविभावस्य ग्रहः । सर्वानुगतत्वख्यापनार्थं घाष्ट्र्यं प्रथममुपात्तम् । सभयादिरपि प्रगल्भो न शक्नोत्याकारं संवतुम् । 'विक्रिया' भ्रूविकार मुखरागादिका, तस्या रोधः संवरणम् । रोवकारकत्वेनोपचाराच्चित्तविशेषोऽपि रोधः । न बहिःस्था चित्तवृत्तिरिति पृषोदरादित्वाद् अवहित्था' । अत्रावहित्थायां प्रस्तुतक्रियातोऽन्यकथनावलोकनकथामङ्गकृतकस्थैर्यादिकं क्रियान्तरमिति । [४२] १४४ ॥
(३१) अथ जाड्यम
[ सूत्र २१३ ] -- जाड्यमिष्टादितः कार्याज्ञानं मौनानिमेषणैः ।
श्राभिमुख्य श्रौत्सुक्य कहलाता है। स्मरण इष्टका [ श्रभिप्रेत है । 'स्मरणाद्यात्' में ] 'चाय' शब्दसे सुन्दर वस्तुके देखनेकी इच्छा, प्रेम और लोभादि विभावों [कारणों] का ग्रहरण होता है । वराका अभिप्राय मन, वाणी तथा शरीर और दृष्टिको चपलता है। आदि शब्दसे कामको भूल जाने, लम्बी श्वास छोड़ने, असम्बद्ध बात करने, स्वेद, और हृदयकी जलन धादि अनुभावोंका ग्रहरण होता है
(३०) व श्रवहित्या [का लक्षण करते हैं ] -
[ सूत्र २१२] - धृष्टता प्रादिसे उत्पन्न विकारको छिपानेका यत्न 'श्रवहित्था' कहलाता है । इसमें [ प्राकार - विकृतिको छिपानेके लिए] दूसरी क्रिया की जाती है । [४२] १४४ । धृष्टता अर्थात् प्रगल्भता प्रादि शब्द से भय, लज्जा, गौरव, दुष्टाभिप्राय आदि कारणों [ विभावों] का ग्रहण होता है । [श्रायके] सबमें अनुस्यूत होनेके कारण सबसे पहले धृष्टता का ग्रहण किया है । सभय आदि व्यक्ति भी यदि प्रगल्भ न हो तो प्राकारको छिपाने में समर्थ नहीं हो सकता है । विक्रिया अर्थात् भौंहोंका टेढ़ा होना या सुखका लाल प्रादि हो जाना प्रादि, उसका रोध अर्थात् छिपाना । [बाह्य विकारको ] छिपानेका कारण होनेसे उस प्रभिप्रायकी चित्तवृत्ति- विशेषको भी 'रोध' कह सकते हैं। बाहर प्रकाशित न होने वाली चितवृति 'न बहिरथा' होनेसे 'प्रवहित्था' कहलाती है [ यह अवहित्था पदका निर्वचन है] 'दरादिगण' पठित नियमसे इसकी सिद्धि होती है । इसमें अर्थात् प्रवहित्था में प्रस्तुत क्रियासे भिन्न कथन, अवलोकन, बात समाप्त कर देना, बनावटी स्थिरता दिखलाना यादि दूसरी क्रियाएँ की जाती हैं ।। [४२] १४४ ॥
[का लक्षण करते हैं ]
(११) अब [ सूत्र २१३] - इष्ट दिसे [अर्थात् इष्टप्राप्तिको प्रसन्नता मे ] कामको भूल जाना 'जाना' कहलाता है । मौन और टकटकी लगाकर देखनेके द्वारा [उसका अभिनय किया जाता है] +
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