Book Title: Natyadarpan Hindi
Author(s): Ramchandra Gunchandra, Dashrath Oza, Satyadev Chaudhary
Publisher: Hindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
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का० १५२, सू० २२७ ]
तृतीयो विवेकः
[ ३५७ तलपुष्प पुरवर्तितादीनि करणान्यष्टोत्तर शतमित्यादिः सर्वोऽपि चेष्टाविषयो अङ्गोपाङ्गप्रभवत्वाद्-आङ्गिक एवाभिनयः ।
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गतयोऽप्येवम् । तत्रोत्तम -मध्यम-नीचानां क्रमेण धीरा मध्यमा द्रुता च सामान्येन गतिः । विशेषस्तु बृद्ध-व्याधित-क्षधित-श्रांत-तपः क्लांत-तुमित- सावहित्यशोक-शृङ्गारान्वित- स्वच्छन्दादीनां मन्थरा । हर्ष- आवेग - कुतूहल-भय-प्रौत्सुक्यादिमतां त्वरिता । प्रच्छन्नकामुक - वैरि-चौर-रौद्रसत्वादिशङ्कितादीनां निःशब्दपदसनारा उन्मार्गा दिगवलोकनवती च । शीत-वर्षार्दितयोः कम्पमाना सम्पीडिताङ्गा । धर्मार्तस्य स्वेदापनयना छायावलोकनवती । प्रहारार्त-स्थूलयोरङ्गाकर्षण- श्वासवती स्थिरा च । यतिनां नेत्रचापल्य-पुरतो युगमात्रनिरीक्षणवती । उन्मत्त मत्तयोर्विघूर्णितनेत्रा स्खलिता समोत्सारितमतल्ली मतल्ली चेति षोडश ।
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एता भौम्यः स्मृताश्चार्यः शृणुताकाशिकीः पुनः ॥ १० ॥
इन सोलह मौमी चारियोंके नाम गिनानेके बाद भरतमुनिने सोलह प्रकारकी ग्राकाशिकी चारियोंके नाम दिए हैं जो निम्न प्रकार हैं
श्रतिक्रांता पक्रांता पार्श्वक्रांता तथैव च ।
ऊर्ध्वजानुश्च सूची च तथा नृपुरपादिका ॥। ११ ॥ डोलापादा तथाक्षिप्ता श्रविद्धोवृत्तसंज्ञिते ।
विद्युद्भ्रांता ह्यलाता च भुजंगत्रासिता तथा ॥ १२ ॥ मृगप्लुता च दण्डा च भ्रमरी चेति षोडश । काशिक्यः स्मृता होता लक्षणं च निबोधत ॥
१३ ॥
तलपुष्प पुटतता प्रांदि एक सौ माठ प्रकारके करण होते हैं [ द्विपादकमलं यत्तु करणं नाम तद्भवेत् ] इस प्रकार चेष्टाका सारा ही विषय मंगों और उपांगोंके द्वारा होने वाला होनेके कारण प्रांगिक अभिनय कहलाता है ।
इसी प्रकार गतियां भी [द्यांगिक अभिनयके भीतर ही प्राती हैं। भरतमुनिने बारहवें अध्यायमें गतिप्रचारका विस्तार पूर्वक वर्णन किया है। उसके आधारपर गतियोंका संक्षिप्त विवरण ग्रंथकार यहाँ प्रस्तुत कर रहे हैं]। उनमेंसे उत्तम, मध्यम तथा प्रथम पात्रोंकी साधारणतः क्रमशः धीरा, मध्यमा तथा दृता गति होती है । विशेष रूपसे रोगी, वृद्ध, भूखे, थके हुए, तबसे क्षीण हुए, क्षुभित, प्राकार-गोपन में लगे हुए [सावहित्थ] शोकयुक्त या म्ह युक्त और स्वच्छन्दादिकी गति मन्थर होती है। हर्ष, प्रावेग, कौतूहल, भय, चौत्सुक्य प्रावि युक्त व्यक्तियोंकी गति तेज [स्वरिता] होती है । प्रच्छन्न- कामुक, वंरी, चोर और भयानक प्राणियोंसे डरे हुए आदि व्यक्तियोंकी धीरे-धीरे, प्रावाज न होने पावे इस प्रकार पैर रखते हुए, रास्ता छोड़कर और चारों प्रोर देखते हुए चलनेवाली गति होती है। जाड़े तथा बलि पीड़ितों की गति काँपते हुए और शरीरको सिकोड़े हुए होती है । पसीना पोंछते हुए धौर छायाकी खोज करते हुए गति होती है। अभियोकी अपने शरीरको खींचते हुएसो हॉपनेसे युक्त प्रोर
धूपसे संतप्त व्यक्तिकी प्रहारसे आतं और मोटे स्थिर-सी गति होती है ।
नति नेत्रोंकी चपलतासे रहित और सामनेको ओर थोड़ी दूर तक देखने वाली होती किए हुए व्यक्तियोंकी गति प्राँसें चढ़ाए हुए और लड़बड़ाते हुए
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