Book Title: Natyadarpan Hindi
Author(s): Ramchandra Gunchandra, Dashrath Oza, Satyadev Chaudhary
Publisher: Hindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi

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Page 496
________________ का० १७२, सू० २५६ } चतुर्थी विवेकः ३७६ 'कुलजा' विप्र-वणिगादिकुलसम्भूता । 'प्रतिमा' इति पण्यकामिनी ललितोदात्ता रूपकेषु वर्णनीया कामार्थप्रधानत्वात् । 'पूर्वा' कुलजा पुनरुदात्ता, नय-विनयगुरुभीत्यादिबहुलत्वान । 'परे' द्वाभ्यामन्ये । त्रिधा धैर्य - लालित्य - उदात्तत्वेन त्रिप्रकारे । दिव्योत्तमजातित्वाभ्यां कामार्थनिष्ठत्वाच्च । शान्तत्वप्रकारस्तु भोगभूमिजत्वेन दिव्यानां दिव्यामाहाचर्येणोपात्तत्वाच्च क्षत्रियाणां नैव गृह्यते इति ।। [१६] १७२ ।। अथासां विशेषमाह - [ सूत्र २५६ ] - रागिण्येवाप्रहसने नृपे दिव्ये च न प्रभौ । गणिका क्वापि दिव्या तु भवेदेषा महीभुजः ॥ [२०] १७३ ॥ प्रहसनवर्जिते रूपके गणिका नायिका रागिण्येय विधेया । यथा मृच्छकटिकायां चारुदत्तस्य वसन्तसेना । प्रहसने तु हाम्यनिमित्तं अरक्तापि । नृप-दिव्यनायकयोश्च गणिका न नायिका निबन्धनीया । एपा गरिएका यदि दिव्या भवति, तदा राज्ञः 'क्वापि' इति, वृत्तानुरोधान्नायिकात्वेन भवति । यथोर्वशी पुरूरवसः । 'नृपे दिव्ये च न प्रभौ' इत्यस्यापवादोऽयमिति ।। [२०] १७३ ॥ कुलजा नायिका ] उदात्त होती है। शेष दोनों दिव्या और क्षत्रिया [धीरा, ललिता और उदासा] तीन प्रकारकी होती हैं । [१६] १७२ । कुलजा अर्थात् ब्राह्मण या वणिक् प्रादिके कुलमें उत्पन्न हुई । [ क्षत्रिया नायिका अलग गिनाई है इसलिए कुलजाको व्याख्या में क्षत्रियाका प्रहरण न करके ब्राह्मण या वंश्य कुलोपनाका ही वर्णन किया है ] । प्रतिमा अर्थात् [पण्यकामिनी] वेश्या नायिका रूपकों में ललितोदात्ता ही वर्णन करनी चाहिए। पूर्वा प्रर्थात् पहिली कुलजा नायिका नीति विनय और गुरुप्र [ माता पिता श्रादि] से भयसे युक्त होनेके कारण उदात्ता ही [वर्णनीय होती है ] 'परे' अर्थात् [ वेश्या तथा कुलजा ] इन दोनोंसे भिन्न [दिव्या तथा क्षत्रिया रूप] शेष दोनों [ प्रकारकी नायिकाएँ| धीरा, ललिता तथा उदात्ता रूप होनेसे तीन प्रकारकी होती है। दिव्य तथा उत्तम जातिवाली होनेसे और काम तथा प्रर्थनिष्ठ होनेसे [दिव्य तथा क्षत्रिया नायिकाएँ धीरा, ललिता तथा उदाता ] तीन प्रकारको होती है। दिव्य नायिकाओंके भोगभूमिमें उत्पन्न होनेके कारण और क्षत्रिया नायिकाद्योंके दिव्योंके साहचयंसे प्राप्त होनेके कारण धीरशान्त वाला चौथे प्रकारका नहीं लिया जाता है। [अर्थात् धीर प्रशान्त नायकके समान धीरशान्त नायिका वर्णनीय नहीं होती है] ।। [१६] १७२ ।। [सूत्र २५६] अब इन [नायिकाओं] के विशेष भेदको कहते हैं- प्रहसन से भिन्न रूपकोंमें गणिका नायिका अनुरागिणी हो निबद्ध करनी चाहिए । [प्रहसन में अनुराग रहित गणिका नायिका भी हो सकती है]। राजा और दिव्य नायकोंके साथ गणिका नायिकाका वर्णन नहीं करना चाहिए। कहीं-कहीं यह गणिका नायिका यदि दिव्य हो तो उसका राजाके साथ सम्बन्ध वर्णन हो सकता है । [२०] १७३ । प्रहसन से भिन्न रूपोंमें गणिका नायिका अनुरागिणी ही दिखलानी चाहिए। जैसे मृच्छकटिक में चावलको वसन्तसेना [ अनुरागिणी नायिका है ] । प्रहसन में तो हास्य [जनन] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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