Book Title: Natyadarpan Hindi
Author(s): Ramchandra Gunchandra, Dashrath Oza, Satyadev Chaudhary
Publisher: Hindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi

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Page 504
________________ का० १८४, सू० २७३-७४ ] चतुर्थो विवेकः [ ३० अथ स्वभावजेषु प्रथम विभ्रममाह[सूत्र २७३]-रागादिना विपर्यासः क्रियारणामथ विभ्रमः ॥ ॥ [३०] १८३ ॥ अथेति आंगिकानन्तर्यार्थः । रागः प्रियतमं प्रत्येव बहुमानः । आदिशब्दान्मदहर्षादिग्रहः । मदो मद्यकृतश्चित्तोल्लासः । हर्षः सौभाग्यगर्वः । अन्यथा वक्तव्येऽन्यथावचनं,हस्तेनादातव्ये पादेनादानं, कटीयोग्यस्य कण्ठे निवेशनं, इत्यादिकश्चेष्टाविपर्यासो विभ्रमः । विशिष्टविभावलाभे रतिप्रकर्षाद् देहविकाराः स्वाभाविकाः। अंगजास्तु विशिष्टविभावमन्तरेणेति विशेषः । [३०]१८३ ॥ अथ विलासः[सूत्र २७४]-विलासः प्रियदृष्ट्यादौ चारुत्वं गात्रकर्मणोः । श्रादिशब्दात् सम्भाषणादिग्रहः । चारुत्वं तात्कालिकः सातिशयो विशेषः । कर्मस्थानासन-गमन-निरीक्षणादिचेष्टेति । अथ विच्छित्तिः अर्थात अपने पूर्ववर्ती भावके उत्कर्ष रूप होनेसे हाव, भावकी अपेक्षा करता है और अपने पूर्ववर्ती हाबके उत्कर्ष-रूप होनेसे हेला हावको अपेक्षा करती है । [इस प्रकार तीन प्रकारके प्रांगिक धर्मोको कह चुकनेके बाद] अब प्रागे स्वाभाविक [बस धर्मो] मेंसे पहले 'विभ्रम' को कहते हैं सूत्र २७३]-रागादिके कारण किया उलट-पुलट हो जाना 'विभ्रम' कहलाता है।[३०]१८३॥ ___'पथ' इस शम्बका अर्थ प्रांगिक [धर्मोके वर्णन के बाद यह है । राग अर्थात् प्रियतम के प्रति ही अत्यन्त प्रादर । पादि शब्दसे मद, हर्ष प्राविका प्रहण होता है। मद अर्थात् मापानके कारण उत्पन्न चित्तको प्रसन्नता। हर्ष अर्थात् अपने सौभाग्यका गर्व । कुछ पौर कहनेके स्थान पर कुछ और कह जाना, हायसे पकड़ने योग्यको परसे पकड़ना, कमरमें पहिमने योग्यको गलेमें गल सेना [यह सब "क्रियाणां विपर्ययः', 'विभ्रम' कहलाता है। विशिष्ट कारण [विभाव के प्राप्त होनेपर रतिके प्रकर्षसे बेहमें विकार होना स्वाभाविक है [ इसलिए इनको स्वाभाविक धर्म कहा गया है और मांगिक विकार तो विशेष कारपके बिना [शरीरमात्रसे उत्पन्न होते हैं यह [इन दोनों प्रकारके धोका भेव है] [३०]१८३॥ अब मागे 'विलास' [का लक्षरण करते हैं] [सूत्र २७४]-प्रियके वर्शन प्रारिसे शरीर मौर कोंमें विशेष सुकुमारता विलास' पारि शब्दसे सम्भाषण माविका प्रहम होता है। पात्व अर्थात् उस समय रतन होनेवाला विशेष प्रकारका सौन्दर्य । कर्म अर्थात् खड़ा होना, बैठना, बलमा और सना मावि प्रमाणे विवित्ति' [का महासे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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