Book Title: Natyadarpan Hindi
Author(s): Ramchandra Gunchandra, Dashrath Oza, Satyadev Chaudhary
Publisher: Hindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi

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Page 503
________________ ३८६ ] नाट्यदर्पणम् [ का० १८३, सू० २७१-७२ (२) अथ हावः - [सत्र २७१]-नेत्रादिविकृतं हावः सशृङ्गारमसन्ततम् ॥ [२६] १८२ ॥ नेत्रयोः, आदिशब्दाद् भ्र-चिबुक-ग्रीवादेश्च सातिशयो विकारः शृङ्गारोचित उद्भिद्योद्भिद्य विश्रान्तिमत्त्वेनासन्ततो हाव इति ॥ [२६] १८२ ।। (३) अथ हेला[सूत्र २७२] -तदेव सन्ततं हेला, तारुण्योद्बोधशालिनी । • तदेव सातिशयं नेत्रादिविकृतं सन्ततं प्रसरणशीलं सशृङ्गारं समुचितविभावविशेषोपग्रहविरहादनियतविषयं प्रबुद्धरतिभावसमन्वितं हेला । अस्यां च तारुण्यस्य प्रकर्षगमनम् । एते च त्रयोऽङ्गजाः परस्परसमुत्थिता अपि भवन्ति । तथा हि कुमारीशरीरे प्रौढतमकुमारगत-हाव-भाव-हेलादर्शन-श्रवणाभ्यां भावादयोऽनुरूपा विरूपाश्च भवन्ति । किन्तूत्तरानपेक्ष्य एव भावः। हावस्तु भावापेक्षः । हावापेक्षिणी च हेला । पूर्वपूर्वोत्कर्षरूपत्वादनयोरिति । प्रकृतिको है इस प्रकारका निश्चय सहृदयोंको हो जाता है [इसीलिए भावको रति तथा उसमत्वका चिह्न कहा गया है । अब प्रागे 'हाव' [का लक्षण करते हैं [सूत्र २७१]-शृङ्गारयुक्त किन्तु निरन्तर न रहनेवाला नेत्रादिका विकार 'हार' कहलाता है। [२६] १८२॥ दोनों नेत्रोंका, और प्रादि शब्दसे भौंह, ठोडी, गर्दन माविका भूगारके अनुस विशेष प्रकारका [विकार] उठ-उठकर विधांत हो जानेके कारण निरन्तर न विद्यमान रहने वाला विकार 'हाव' कहलाता है ।[२६]१८२॥ - अब आगे 'हेला' [का लक्षण करते हैं] [सूत्र २७२]-यौवनोत्कर्षपर उदित और निरन्तर रहनेवाला वही निवारिका विशेष प्रकारका विकार] 'हेला' कहलाता है। शृंगारके अनुरूप और निरन्तर विद्यमान रहनेवाला नेत्र प्रारिका वही विशेष प्रकार का विकार किसी विशेष कारण [विभाव के सम्बन्धके बिना, पनियत-विषय [अर्थात् किसी व्यक्ति-विशेषसे सम्बद्ध न होनेवालाप्रबुद्ध सामान्य रतिभावसे समन्वित [वही नेत्राधि का विशेष प्रकारका विकार] 'हेला' कहलाता है। इस [हेला] में यौवनोदय प्रकर्षको प्राप्त हो जाता है। [भाव, हाव और हेला] ये तीनों प्रांगिक विकार एक-दूसरेसे भी उवित होते हैं। जैसे कि कुमारीके शरीरमें प्रौढतम कुमारके भाव हाव हेलाको देखने या सुननेसे [उस कुमारके प्रति रुचि या प्रचि होनेके कारण] अनुरूप या विरूप भावादि उत्पन्न होते हैं। [ये परस्पर अन्योन्य भावादि होते हैं ] किन्तु इनमेंसे भाव उत्तरवर्ती [हावादि] की अपेक्षा नहीं रखता और हाव [अपने पूर्ववर्ती] भावको अपेक्षा करता है [भावके बिना हाव उत्पन्न नहीं हो सकता है। और हावके बाद उत्पन्न होनेवाली] हेला हावको अपेक्षा करती है हाव बिना उत्पन्न नहीं होती है] इन [हाव तथा हेला] दोनोंके पूर्ण-पूर्वके उत्कर्ष प होनेछ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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