Book Title: Natyadarpan Hindi
Author(s): Ramchandra Gunchandra, Dashrath Oza, Satyadev Chaudhary
Publisher: Hindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi

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Page 490
________________ का० १६१, सू० २४१-४४ ] चतुर्थो विवेकः [सूत्र २४१]-क्षेपादेरसहिष्ण त्वं तेजः प्रारणात्ययेऽपि च । तेपस्तिरस्कारः। आदिशब्दाद् दैन्यावज्ञादिग्रहः । 'प्राणात्ययेऽपि च' इति प्राणात्ययमण्युपगम्येत्यर्थः । तेनासहिष्णुत्वमक्षमा। न तु देशकालावस्थाद्यपेक्षया नीत्या सहनपूर्वकं निर्यातनमिति । (२) अथ विलास:[सूत्र २४२]-विलासो वृशवद् यानं धीरा दृक् सस्मितं वचः । [९] १६२ ॥ 'वृषो' महोक्षः । धीरत्वमुदात्तत्वमिति ॥ [१] १६२ ॥ (३) अथ माधुर्यम्[सूत्र २४३]-माधुर्यं विकृतिः स्तुत्या क्षोभहेतौ महत्यपि ! प्रस्तुताद् रूपाद् रूपान्तरं 'विकृतिः' । 'स्तुत्या' रोमाष्च-परिकरबन्ध-श्मश्रुकेशसमारचन-शस्त्रावलोकनादिकात् । 'क्षोभः' सत्वचलनमिति । (४) अथ शोभा[सूत्र २४४]-शोभा चिह्नघृणा-स्पर्धा-दाक्ष्य-शौर्योद्यमोन्नये ॥ [१०] १६३ ॥ [सूत्र २४१]-प्राणनाशके संकटको स्वीकार करके भी अपमान प्राविको सहन न करना 'तेज' कहलाता है। 'क्षेप' अर्थात् तिरस्कार । प्रादि शब्दसे देन्य प्रौर प्रवज्ञा प्राविका पहरण होता है। 'प्रारणात्ययेऽपि च' इसका अपने प्राणोंके विनाशको भी स्वीकार करके यह अभिप्राय है। इसलिए 'असहिष्णुत्व का अर्थ सहन न करना क्षमा न करना है । वेश, काल, अवस्था मादि को अपेक्षासे उस समय सहन करके बादमें उसका बदला लेना [निर्यातन, असहिष्णुत्व शब्द का प्रथं] नहीं है। (२) अब विलास [गुरणका लक्षण करते हैं] [सूत्र २४२]-वृषके समान गति, धीर दृष्टि पोर मुस्कराते हुए बात करना यह 'विलास' गुरणका लक्षण है । [६] १६२ । वृष अर्थात सांड । धीरत्वका अर्थ उदातत्व है। [६] १६२ । (३) अब प्रागे माधुर्य [गुरगका लक्षण करते हैं]-- [सूत्र २४३]-क्रोध आनेका महान् कारण उपस्थित होनेपर भी हलकी-सी विकृति माधुर्य [गुरण कहलाती है। प्रस्तुत वर्तमान रूपसे भिन्न रूपको प्राप्ति 'विकृति' कहलाती है। हलके-से [स्तुत्या अर्थात् ] रोमांच, कमर कसना, मूछोंपर ताव देना और शस्त्रकी पोर देखना मादिसे [हलकीसी विकृतिका प्रकाशन माधुर्थ गुरण कहलाता है] । 'क्षोभ' अर्थात् सत्त्वसे विचलित हो जाना। (४) अब 'शोभा' [गुणका लक्षण करते हैं]-- [सूत्र २४४]-घृणा, स्पर्धा, दक्षता, शौर्य तथा उद्यमके विद्यमान होनेके अनुमान करनेका चिह्न शोभा [गुण] कहलाता है । [१०] १६३ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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