Book Title: Natyadarpan Hindi
Author(s): Ramchandra Gunchandra, Dashrath Oza, Satyadev Chaudhary
Publisher: Hindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi

View full book text
Previous | Next

Page 489
________________ दर्पणम् श्रथ प्रबन्धेषु नीचप्रकृतिकमपि नायकमाह [ सूत्र २३८ ] - नीचोऽपीशः कथावशात् । कथा वृत्तं, तस्या वशः सामर्थ्यं हसनीयत्वादि तस्माद् भारण-प्रहसनयोः, कस्याविद् वीथ्यां च नीचोऽपि नायकः । प्रथमविवेके मध्यमोत्तमयोर्नायकत्वमुक्तं तदपवादोऽयमिति । ३७२ ] अथ सर्वरूपकेषु मुख्यनायकं लक्षयति [ सूत्र २३६ ] - प्रधानफलसम्पन्नोऽव्यसनी मुख्य नायकः ॥ [ ७ ] १६० ॥ व्यसनं स्वध्यायासक्तिः, विपद्वा । [७] १६० ॥ अथास्य गुणानुद्दिशति - [ सूत्र २४० ] - तेजो विलासो माधुर्यं शोभा स्थैर्यं गभीरता । प्रौदार्य ललितं चाष्टौ गुरगा नेतरि सत्त्वजाः ॥ ॥ [ ८ ] १६१ ॥ '' इत्युक्तपरिगणनम् । न तु संख्यानियमो ऽन्येषामपि सम्भवात् । सत्त्वं विपुलाशयत्वम् ॥ [८] १६१ ॥ श्रथैषां प्रत्येकशो लक्षणम् - मागे प्रबन्धकाव्योंमें नीच प्रकृतिवाले नायकों [के हो सकने] का भी प्रतिपादन करते हैं [ का० १६०, सू० २३८-४० [ सूत्र २३८ ] - कथाके अनुसार कहीं नोच भी नायक हो सकता है । कथा प्रर्थात् प्राख्यान वस्तु । उसके वशसे अर्थात् सामर्थ्य से अर्थात् हसनीयत्व प्रादि की दृष्टिसे । इसलिए 'भारत' और 'प्रहसन' में तथा किसी 'वीथी' में नीच भी नायक हो सकता है। प्रथम विवेकमें [ केवल ] मध्यम तथा उत्तमके नायकत्वका कथन किया था यह उसका पवाद है । अब प्रागे समस्त रूपकोंके मुख्य नायकका लक्षरण करते हैं [ सूत्र २३९ ] – [रूपकके] प्रधान फलको प्राप्त करनेवाला [विषयासक्ति प्रथवा प्राण こ Jain Education International हानि रूप विपत्ति ] व्यसनसे रहित मुख्य नायक होता है । [७] १६० । व्यसनका अर्थ स्त्री प्रादिके प्रति प्रासक्ति प्रथवा [ प्राणहानि प्रादि रूप ] विपत्ति है [७]१६०॥ [ सूत्र २४० ] - अब इस [मुख्य नायक ] के गुणों को गिनाते हैं मुख्य नायकमें उनके सत्व से उत्पन्न १. तेज, २. विलास, ३. माधुर्य, ४. शोभा, ५. स्थिरता, ६ . गम्भीरता, ७. उदारता, ८. लालित्य ये आठ गुण रहते हैं । [८] १६१। 'भ्रष्ट' इस पदसे [कारिकामें] कहे हुए [श्राठ गुणों] की गणना बिखलाई है । यह संख्याका नियम नहीं है [ प्रर्थात् प्राठ ही गुण मुख्य नामक में होते हैं यह इस 'अष्टी' पदका अभिप्राय नहीं है । क्योंकि इनके अतिरिक्त ] अन्य गुरग भी नायकमें हो सकते हैं। ['सश्वसम्भवात्' पदमें] 'सत्त्व' शब्द से विपुलाशयत्वका ग्रहण होता है |[८]१६१ ॥ (१) अब आगे इन [ श्राठ गुणों] मेंसे प्रत्येक के अलग-अलग लक्षण For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506 507 508 509 510 511 512 513 514 515 516 517 518 519 520 521 522 523 524 525 526 527 528 529 530 531 532 533 534 535 536 537 538 539 540 541 542 543 544 545 546 547 548 549 550 551 552 553 554