Book Title: Natyadarpan Hindi
Author(s): Ramchandra Gunchandra, Dashrath Oza, Satyadev Chaudhary
Publisher: Hindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
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नाट्यदर्पणम ० १५८, सू० २३३-३५ अथोत्तमप्रकृतेः पुंसो गुणानाह[सूत्र २३३]-शरण्यो दक्षिरस्त्यागी लोक-शास्त्रविचक्षणः । गाम्भीर्य-धर्य-शौण्डीर्य-न्यायवानुनमः पुमान् ॥
[४] १५७ ॥ शरणमापद्गतत्राणम् । तत्र साधुः । 'दक्षिणोऽनुकूलः । 'लोक शब्दनात्र लोकव्यवहार उच्यते । तत्र 'विचक्षाः। एवमादयोऽन्येऽप्युत्तमपुरुषगुणा द्रष्टल्या इति ।। [४] १५७ ॥
___ अथ मध्यगप्रकृतिः[सूत्र २३४]-मध्यो मध्यगुरणः ।
'मध्य!' नाघ्युत्कष्टा नाप्यपकृष्टा 'गुणा' लोकव्यवहार चातुर्य-कला-विचक्षणत्वादयो धर्मा अस्येति ।
अथ नीचप्रकृतिः.... [सूत्र २३५] -~-नीचः पापीयान् पिशुनोऽलसः । कृतघ्नः कलही क्लोबः स्त्रीलीलो रूक्षवाग जड़ः ॥
|५१५८ ॥ [मागे 'तारतम्य' शब्दका अर्थ करते हैं] 'प्रकृष्ट' [पद] से कुछ प्राधिक्य और बहुत अर्थमें होनेवाले 'तरप-तम' दोनों प्रत्ययोंके अनुकरण रूपमें 'तर-तम' [प्रत्यांश] हैं । उन [तर-तम] का भाय 'तारतम्य' हुप्रा । [उसका अर्थ यह है कि सामान्य, उससे कुछ अधिक प्रौर उससे भी विशेष अधिक रूप तीन अवस्थामोंसे युक्त [भाव 'तारतम्य' कहलाता है] ॥[३]१५६।।
प्रब आगे उत्तम प्रकृतिवाले पुरुषके गुणोंको कहते हैं
[सूत्र २३३]-शरणागतोंके रक्षणमें साधु, अनुकूल, त्यागी, लोकव्यवहार तथा शास्त्रों में निपुण, गम्भीरता, धीरता, पराक्रम और न्याय-विचारसे युक्त पुरुष 'उत्तम' पुरुष कहलाता है। [४] १५७ ॥
शरण अर्थात् विपत्ति में पड़े हुएको रक्षा करना ! उत्तम साधु [ध्यक्ति 'शरण्य' कहलाता है] । 'दक्षिरण' अर्थात् सबके ] अनुकूल । 'लोक' शब्दसे यहां लोकव्यवहारका कथन किया गया है। उसमें निपुण। इसी प्रकारके अन्य भी गुण उत्तम प्रकृतिवाले पुरुषों में होते हैं॥[४] १५७॥
अब प्रागे मध्यम प्रकृति के पुरुषके गुणोंको कहते है - [सूत्र २३४] --मध्यम गुणोंवाला [पुरुष] मध्यम प्रकृति कहलाता है ।
'मध्यम' अर्थात् न तो अधिक उत्कृष्ट प्रौर न ही अधिक निकृष्ट 'गुण' अर्थात् लोकव्यवहारको निपुणता, कला, विद्वत्ता प्रावि धर्म जिसके हों [वह मध्यम प्रकृतिका पुरुष कहलाता है।
अब प्रागे नोच प्रकृति [पुरुषके गुणोंको कहते हैं]--...
[सत्र २३५]--नीच प्रकृतिवाला पुरुष अत्यन्त पाप करने वाला, चुरालखोर, प्रालसी, कसम, झगड़ालू, पराक्रम-विहीन, स्त्री-निरत प्रौर रूक्ष बोलनेवाला होता है ।[५]१५८॥
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