Book Title: Natyadarpan Hindi
Author(s): Ramchandra Gunchandra, Dashrath Oza, Satyadev Chaudhary
Publisher: Hindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi

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Page 486
________________ का० १५६, सू० २३२ ] चतुर्थो विवेक: [ ३६६ 1 पचप्रकारा। उपयोगबाहुल्यापेक्षं चैतत् । अपरे च ध्रुवाप्रकाराः सन्ति, अल्पोपयोगित्वात् तु न लक्षिताः । 'कविधवा' इति कबेः प्रबन्धकतुरियं पञ्चविधा ध्रुवा । श्रनेन रङ्गमध्यवर्तिनीनां ध्रुवाणां रंगविध्यनन्तरं नाट्याचार्य कल्पितानां गानधुवाणां च व्युदास इति ||[२] १५५ || अथ नाट्यपात्राणां प्रकृतिभेदानाह [ सूत्र २३२] - उत्तमा मध्यमा नीचा प्रकृतिर्नृ स्त्रियोस्त्रिधा । एकैकापि त्रिधा स्व-स्वगुणानां तारतम्यतः ॥ ॥ [३] १५६ ॥ 'उन्' इत्यव्ययं उत्कृष्ट ऽर्थे । ततः प्रकृष्टार्थे 'नमपि' उत्तमा । प्रकर्षेण क्रियन्ते इति । प्रकृतिर्जन्म सहभुवं शुभाशुभं शीलम् । 'त्रिवेति' तिस्रोऽपि प्रकृतयः स्वस्थाने उत्तमा मध्यमा नीचाश्चेति । 'गुणाः' प्रत्येक प्रकृतिषु वक्ष्यमाणाः । प्रकृष्टस्य किचिदाधिक्य बहुत्वभाविनोस्तरप्-तमप्-प्रत्यययोरनुकृतिस्तर - तमौ इति । तयोर्भाव: 'तारतम्यम्' । सामान्य- किञ्चिदाधिक्य-सातिशयाधिक्यलक्षणावस्थात्रययोगित्वमिति ।। [३] १५६ ॥ free, आक्षेप, प्रसाद और अन्तर ]- श्रादिसे पाँच प्रकारकी होती है । [ इन पांच प्रकारोंके ] उपयोग बाहुल्यको दृष्टिसे यह [पाँच भेवोंका] कहा गया है । [ वैसे तो इन पांच प्रतिरिक्त] चौर भी ध्रवाके प्रकार हैं किन्तु उनका उपयोग बहुत कम होनेसे उनके लक्षण नहीं किए हैं। [कारिकामें इन पाँचोंको 'कवि वा' कहा है इसका अभिप्राय यह है कि कविधवाओंके प्रतिरिक्त अन्य ध ुवाएँ भी होती हैं। इसलिए ] 'कविध्रुवा' इस पदके द्वारा कवि अर्थात् ग्रंथकर्ता [प्रर्थात् ग्रंथकर्ताके द्वारा प्रयुक्त ] ये पाँच प्रकारको 'ध्रुवा' होती हैं। इससे पूर्व रङ्गके मध्य में होनेवाली और पूर्वरंगविधिके बाद नाट्याचार्य द्वारा कल्पित गानको ध्रुवाओंका निराकरण किया गया है। [अर्थात् ये पाँच प्रकार केवल 'कविध्रुवा' के होते हैं। अन्य वाओंसे इन भेदों का कोई सम्बन्ध नहीं है ] ।। [२] १५५ ॥ मन नाव्यके पात्रोंकी प्रकृतिके भेदोंको बतलाते हैं [सूत्र २३२] - [ नाटकके] स्त्री और पुरुष [पात्रों] की उत्तम, मध्यम तथा प्रथम तीन प्रकारको प्रकृति होती है। और अपने-अपने गुरणोंके तारतम्यसे उनमेंसे प्रत्येक [ प्रकृति ) के फिर तीन-तीन भेद हो सकते हैं । [३] १५६ । [उत्तम पदका निर्वचन करते हैं । इस उत्तम पबमें 'उत्' यह श्रव्यय उत्कृष्ट प्रर्थ में है । उससे प्रकष्ट अर्थमें तमप्-प्रत्यय होकर 'उत्तमा' [पद बनता है । इसका अभिप्राय यह है कि] जिसकी बाह्य चेष्टाएं उत्तम रूपसे की जाती हैं [ वह उत्तम प्रकृति कहलाती है] प प्राप्त होनेवाले भले-बुरे स्वभावको 'प्रकृति' कहते हैं । ['एकंकापि त्रिधा' इस स्थलपर दुबारा प्रयुक्त हुए ] 'त्रिधा इससे [ यह सूचित किया जाता है कि पहली बार जो उत्तम, मध्यम व प्रथम तीन प्रकारको प्रकृति कही गई थीं वे ] तीनों प्रकारको प्रकृतियां अपने स्थान में भी उत्तम, मध्यम तथा नीच [भेवसे] तीन प्रकारको हो सकती हैं । [ स्व-स्वगुणानां तारतम्यतः में कहे हुए ] 'गुण' प्रत्येक [उत्तम, मध्यम व प्रथम प्रावि] प्रकृतियोंमें श्रागे कहे जाने वाले हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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