Book Title: Natyadarpan Hindi
Author(s): Ramchandra Gunchandra, Dashrath Oza, Satyadev Chaudhary
Publisher: Hindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi

View full book text
Previous | Next

Page 491
________________ ३७४ ] नाट्यदर्पणम् का० १६३, सू० २४५-४० 'चिह्न' घणादेः सत्तानिश्चयहेतुः शरीरविकारः । 'घृणा' नीचार्थजुगुप्सनम । 'स्पर्द्धा' अधिकेन सह साम्याधिक्याभिलाषः । 'उद्यम' उत्साहः । एषामुन्नयः सत्तानिश्चय इति । [१०] १६३ ।। (५) अथ स्थैर्यम-- [सूत्र २४५]-विघ्नेऽप्यचलनं स्थैर्य प्रारब्धादशभादपि । ___ 'विघ्नः' प्रत्यूहः । 'अचलनं' दायम् । अशुभमिह परलोकानुचितमिति ॥ (६) अथ गाम्भीर्यम[सूत्र २४६] -नाम्भीर्य सहजा मूतिः कोप-हर्षादिगोपिनी ॥ [११] १६४ ॥ 'सहजा' मुखराग-दृष्टविकारादिरहिता । 'मूर्तिः'देहस्वभावः । 'आदि' शब्दाद भय-शोकादिग्रहः । 'गोपनी प्रच्छादिकेति ।। [११] [१६४ ।। (७) अथौदार्यम[सूत्र २४७] -प्रौदार्य शत्रु-मित्राणां प्रारिणतेनाप्युपग्रहः । बहुवचनान्मध्यस्थानां ग्रहः । 'प्राणित'-शब्देन स्वजीवितव्यस्य दानमुच्यते । 'अपि'-शब्देन दान-प्रियभाषणादिग्रहः । 'उपग्रह उपकार इति । "चिह्न' अर्थात् घृणा आदिको विद्यमानताका निश्चायक हेतुभूत शारीरिक विकार । मोच अर्थको निन्दा 'घृणा' है । अधिक गुण वालेको बराबरी करना या उससे अधिक बनने की इच्छा 'स्पा' [कहलाती है । 'उद्यम' का अर्थ उत्साह है। इनका 'उन्नयन' अर्थात् सस। का निश्चय [जिस चिह्नके द्वारा होता है उसको 'शोभा' गुण कहते हैं] ।। [१०] १६३ ॥ (५) अब मागे स्थर्य [गुणका लक्षण करते हैं]--- [सूत्र २४५] —विघ्नोंके उपस्थित होने पर भी प्रौर अशुभ प्रारब्धसे भी अपने निश्चयको न छोड़ना स्थैर्य कहलाता है । 'विघ्न' अर्थात् प्रत्यूह बाधा । 'प्रचलन' अर्थात् दृढ़ रहना । 'प्रशुभ' का अर्थ यहाँ परलोकके अयोग्य [कर्म मादि] है। (६) अब आगे गम्भीर्य [गुरणका लक्षण करते हैं] [सूत्र २४६]-क्रोध और हर्ष प्रादिको प्रकट न होने देनेवाली स्वाभाविक देह-स्थिति का नाम गाम्भीर्य है । [११] १६४ ॥ ___ सहजा अर्थात् [क्रोधादिके मानेपर भी] मुखको लालिमा और दृष्टिके विकार प्रादि से रहित । 'भूति' अर्थात् बेहका स्वभाव । 'प्रादि' शब्दसे [कोप और हर्षके साथ] भयशोकादिका भी ग्रहण होता है। 'गोपनी' अर्थात् प्राच्छादन करने वाली [प्रकट न होने देने बासी] ॥ [११] १६४ ॥ (७) अब प्रागे औदार्य [गुरणका लक्षण करते हैं] [सूत्र २४७]-अपने प्राण देकर भी शत्रु या मित्रका उपकार करना 'पौवार्य' लाता है। बहुवचनमे [शत्रु और मित्रों के साथ] मध्यस्थोंका भी पहरण होता है। 'प्राणित' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506 507 508 509 510 511 512 513 514 515 516 517 518 519 520 521 522 523 524 525 526 527 528 529 530 531 532 533 534 535 536 537 538 539 540 541 542 543 544 545 546 547 548 549 550 551 552 553 554