Book Title: Natyadarpan Hindi
Author(s): Ramchandra Gunchandra, Dashrath Oza, Satyadev Chaudhary
Publisher: Hindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
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३५० ]
(४) अथ स्वरभेद:[ सूत्र २२१ ] स्वरमेदः स्वरान्यत्वं मदादेर्हर्ष - हास्यकृत् ॥
नाट्यदर्प [ का० १५० सू० २२१-२३
अन्यत्वमुपचयापचयाभ्यां भेदः । श्रादिशब्दाद् भय-जरा-हर्ष-क्रोध-रागरौक्ष्यादेर्विभावस्य ग्रहः । उपलक्षणाद् ब्रीडा-निर्वेदादयोऽप्यनुभावा द्रष्टव्या इति । ॥ [ ४७ ] १४६ ॥
॥ [ ४७ ] १४६ ॥
(५) अथाश्रु —
[ सूत्र २२२ ] - अश्रु नेत्राम्बु शोकाद्यैर्नासास्पन्दाक्षिरूक्षणैः ।
आद्यशब्दादनिमेषप्रेक्षरण - आनन्द श्रमर्ष धूम -अञ्जन- जृम्भरण-भय- पीडा- हास्यादेर्विभावस्य ग्रहः । नासायाः स्पन्दः श्लेष्मस्रवणम । बहुवचनान्निष्ठीवन-गद्गदस्वरादेरनुभावस्य ग्रह इति ॥
(६) अथ मूर्च्छनम् -
[ सूत्र २२३] मूर्च्छनं घात कोपाद्यैः खग्लानिभूमिपातकृत् ॥
।। [४८] १५० ॥ आद्यशब्दाद् मदादेर्विभावस्य ग्रहः । खग्ला निरिन्द्रियाणामभिभवः । उपलक्षणात् वेद-श्वासादयोऽप्यनुभावा इति || [ ४८] १५०॥
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(४) अब स्वरभेद [ रूप अनुभावका लक्षरण करते हैं]
[ सूत्र २२१] - मद श्रादिके कारण होनेनाली शब्दकी भिन्नता 'स्वरभेद' कहलाता है । और वह हर्ष तथा हास्यको उत्पन्न करनेवाला होता है । [ ४७ ] १४६ ।
[ स्वरकी] अन्यता श्रर्थात् उसके तीव्र या मन्द हो जानेसे होनेवाला भेद । श्रादि शब्दसे भय, बुढ़ापा, हर्ष, क्रोध, राग और रूक्षता आदि विभावोंका ग्रहण होता है । उपलक्षरण रूप होने से व्रीडा तथा निर्वेद आदि अनुभाव भी समझ लेने चाहिए ॥ [ ४७ ] १४६ ॥
(५) अब प्रभु [ रूप अनुभावका लक्षरण करते हैं ] -
[ सूत्र २२२ ] - शोक श्रादिके कारण उत्पन्न होनेवाले नयनजलका नाम 'प्रभु' है । नथुने फड़कने और आँखोंके पोंछनेकेद्वारा [ उसका अभिनय करना चाहिए] ।
प्राद्य शब्दसे टकटकी लगाकर देखना, श्रानन्द, क्रोध, धुआं, श्रञ्जन, जम्भाई, भय, पोड़ा, हास्य प्रावि विभावोंका ग्रहरण होता है । नाकका स्पन्दन अर्थात् उससे श्लेष्माका प्रवाहित होना । बहुवचनसे थूकने और गद्गद स्वर प्रादि अनुभावोंका भी ग्रहण होता है । (६) अब मूर्च्छा [ रूप अनुभावका लक्षरण करते हैं ] -
[ सूत्र २२३ ] - प्रहार या कोप श्रादिके कारण उत्पन्न इन्द्रियोंकी समर्थता 'मूर्च्छा' कहलाती है । और वह [मूर्च्छित व्यक्तिको ] भूमिपर गिरा देने वाली जाती है । १५०॥
आद्य शब्द से मद श्रादि कारणोंका भी ग्रहण होता है। ग्लानि प्रर्थात् इन्द्रियोंका असमर्थ हो जाना । उपलक्षरण होनेके कारण स्वेद और श्वास आदि अनुभावोंका भी ग्रहण होता है ।। [४८ ] १५० ॥
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