Book Title: Natyadarpan Hindi
Author(s): Ramchandra Gunchandra, Dashrath Oza, Satyadev Chaudhary
Publisher: Hindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
View full book text
________________
३४८ ]
नाट्यदपरणम्
[ का० १४८, सू० २१७
गम् । रावणस्य विषयप्रवृत्तत्वात् शृङ्गाराभासः सतां हास्यमुपजनयति । हास्याभा सादपि हास्यो भवति यथा
लोकोत्तराणि चरितानि न लोक एषः सम्मन्यते यदि किमङ्ग बदाम नाम ? यत् त्वत्र हासमुखरत्वममुष्य तेन, पार्श्वोपपीडमिह को न विजाहसीति ॥
व्यभिचारिणामपि उत्पाद्योत्पादकभावो यथा व्याधेर्निर्वेदः, चिन्ताविवोधाभ्यां स्मृतिः, श्रमादालस्यमित्यादि । व्यभिचार्याभासादप्यनौचित्यप्रवृत्तत्वाद् हास्यो भवतीति ।। [४४] १४६ ॥
अथ रसानां स्थायिनां व्यभिचारिणामनुभावानां च कार्य भूताननुभावान प्रति पादयति
[ सूत्र २१७ ] - वेपथुः-स्तम्भ - रोमाञ्चाः स्वरभेदोऽभ -मूर्च्छनम् । ★ स्वेदो वैवर्ण्यमित्याद्या श्रनुभावा रसाविजा: ॥ [ ४५] १४७ ] आद्यशब्दात् प्रसाद उच्छ्वास- निःश्वास- क्रन्दन- परिदेवित उल्लुकसन भूमिविलेखन-विवर्तन-उद्वर्तन-नखनिस्तोदन भ्रुकुटि-कटाक्ष- तिर्यगधोमुखनिरीक्षरण - प्रशंसनहसन-दान-चाटुकार आस्यरागादयः । क्वचित् स्थायिनो व्यभिचारिणश्च । यथायोगं रसानां स्थायिनां व्यभिचारिणानुभावानां च सहस्रसंख्या अनुभावा इति ।। [४५] १४७ ॥ कहलाते हैं] अनौचित्यसे प्रवृत्त होनेके काररण सारे रसोंके रसाभास हास्यरसके कारण होते हैं। जैसे राजरणका [ सीताके अननुरक्त होने के कारण ] प्रविषय में प्रवृत्त शृङ्गाराभास, सहृदयोंके भीतर हास्य उत्पन्न करता है । [ अन्य रसाभासोंसे हो नहीं अपितु ] हास्याभास से भी हास्यरस उत्पन्न होता है । जैसे
[रावाके] लोकोत्तर चरित्रोंको यदि यह लोक उचित नहीं समझता है तो हम क्या कह सकते हैं । किन्तु [अनुचित कर्म करके भी बेशर्मोकी तरह ] जो वह अट्टहास करता हुआ हँसता है उसको देखकर ऐसा कौन है जो कोख पकड़कर नहीं हँसता है । [हँसते-हँसते किस की कोखोंमें दर्द नहीं होने लगता है ] ।
व्यभिचारिभावोंमें भी परस्पर उत्पाद्य उत्पादकभाव होता है । जैसे व्याधिले निवेद उत्पन्न होता है। चिन्ता तथा विबोधसे स्मृति, और श्रमसे प्रालस्य उत्पन्न होता है । अनौचित्य से प्रवृत्त होनेवाले व्यभिचारिभावसेभी हास्यरसकी उत्पत्ति होती है ॥ [ ४४] १४६॥ e रसोंके, स्थायिभावों और व्यभिचारिभावोंके | तीनोंके | कार्यभूत प्रतिपादन करते हैं
-
/ सूत्र २१७ ] -कम्प, स्तम्भ, रोमाञ्च, स्वरभेव, प्रांत मूर्खा, स्वेट इत्यादि रसाविसे उत्पन्न होनेवाले अनुभाव होते हैं । । ४५] १४७।
प्रा शब्द से प्रसन्नता, उच्छ्वास, निश्वास, रोना-बिल्लाना, उल्लुसासन ] नोचना, भूमि लोदना लोटना-पोटना, नाखून चबाना, अकुटि कटाक्ष, इधर-उधर कर er, air करना, हँसना, दान, चापलूसी प्रोर मुखका लाल पड़ जाना चादि [ भा भी होते हैं। कहीं स्थाविभाव तथा व्यभिचारिभाव भी [भाष हो सकते हैं]
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org