Book Title: Natyadarpan Hindi
Author(s): Ramchandra Gunchandra, Dashrath Oza, Satyadev Chaudhary
Publisher: Hindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
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का० १५२, सू० २२४ ] [ ३५३ देश-कालभेदेनातथाभूतेष्वप्यभिनेयचतुष्टयाच्छादनात् तथाभूतेष्विव नटेषु रामादीनध्यवस्यति । अत एव तासु तासु सुख-दुःखरूपासु रामाद्यवस्थासु तन्मयीभवति । अपरे तेषु तु नामसंकेत-संगीतकाभिनयेषु रामाद्यध्यवसायहेतुषु उपदेशपरमेतदिति मन्यमाना हेयोपादेय-हानोपादानैकतानचेतसो जायन्ते ।
अथवा इह तावत् इत्थमाकृतिः, इत्थं गतिः, इत्थं जल्पितं, इत्थं क्रोधादिलालितं इत्येवमशेषमपि रामादिललितं ऋषीणां कालदर्शिना ज्ञानेन निश्चितं कवयो नाटके निबधन्ति । तत्र चार्थे मुनिज्ञानविश्वासान्नटस्य साक्षाद् दर्शनमेव ।
अपि च कदाचिन्मसदृशो वस्तुस्वरूपे भ्राम्यन्ति न पुनर्ज्ञानदृशः । तत्र मुनिज्ञानदर्शितं अर्थ दर्शनाद्यधिकतर मवगतं वस्तुत एवानुकुर्वाणो दुर्विदग्धबुद्धिभिः कथकार पाक्रियते वराको नटः ? प्रेक्षकारणां तु सत्यसति च स्वदर्शने नटेषु रामाद्यव्यवसाय एव । अन्यथा तु कृत्रिममेतदिति जानन्तो न रामादिसुख-दुःखेषु तन्मयीभवेयुः । उन्मिषन्ति च भ्रान्तैरपि शृङ्गारादयः । कामिनी- वैरि चौरादीनधिस्वप्नमभिपश्यतः पुंसः कथमपरथा रसप्ररोहरोहिणस्तत्र स्तम्भादयोऽनुभावाः प्रादुर्भवेयुरिति ।
तृतीयो विवेकः
मनोहर संगीतको सुनने आदिके काररण विवश होकर, स्वरूप देश और कालका भेद होनेसे उस प्रकारके [अर्थात् रामादि रूप ] न होनेपर भी [वाचिक, आंगिक, सात्विक तथा श्राहार्य रूप] चारों प्रकारके अभिनय के द्वारा [नटके] स्वरूपका श्रावररण कर लिए जानेसे उस प्रकार के [अर्थात् रामादि रूप] बने हुए, नटोंमें रामका निश्चय कर लेते हैं । इसीलिए उस प्रकारकी सुख-दुःखमयी राम प्राविको अवस्थानों में तन्मय- सा हो जाता है।
दूसरे लोग [ यह कहते हैं कि नटमें] राम श्राविका निश्चय कराने वाले नामके संकेत संगीत और अभिनय प्रादि हेतुओंके उपस्थित होनेपर यह [ प्रभिनय प्रादि सब सामग्री मनोरञ्जनके साथ-साथ कर्तव्य के] उपवेश देनेके लिए है ऐसा मानकर हेय तथा उपावेयके परित्याग अथवा ग्रहण में ही तत्पर हो जाते हैं ।
श्रथवा [ तीसरा मत यह है कि राम आदि ] अनुकार्य पुरुषोंको इस प्रकारकी श्राकृति, इस प्रकारको गति, इस प्रकार की बात बीत, प्रौर इस प्रकारका क्रोधादिको चारता थी । इस प्रकार रामादिके सम्पूर्ण चरित्रको ऋषियोंके त्रिकालदर्शी ज्ञानके द्वारा निश्चय करके ही कविगरण नाटकमें उसकी रचना करते हैं । और उसके विषयमें मुनिजनोंके विश्वासके कारण नटका [राम रूपमें दर्शन] साक्षात् [ रामका ही ] दर्शन है ।
और दूसरी बात यह भी है कि इन चर्म चक्षुनोंसे देखने वाले लोग भ्रांत हो सकते हैं किन्तु ज्ञान चक्षुग्रोंसे देखने वाले [मुनिगरण भ्रांत] नहीं [हो सकते हैं] । इसलिए मुनियों [के सदृश कवियों] के ज्ञान द्वारा प्रदर्शित [प्रथं] वास्तविक देखे हुए से भी अधिक अच्छी तरहसे अवगत अर्थको वास्तविक रूपमें अनुकररंग करने वाले बिचारे नटको अल्पबुद्धि [यह अनुकररण नहीं है इस प्रकार ] निराकरण कैसे कर सकते हैं ? प्रेक्षकों ने [श्रनुकार्यको ] देखा हो या न देखा हो किन्तु उनको [ रामादिका श्रभिनय करते समय ] नटोंमें राम आदि [के areer ] का निश्चय होता ही है । प्रन्यथा यह बनावटी [राम] है इस प्रकारका ज्ञान होनेपर रामादिके सुख-दु:खोंमें तन्मयताको प्राप्त नहीं कर सकते हैं । [ इस प्रकार नटमें रामावि बुद्धिको चाहे भ्रम ही क्यों न माना जाय किन्तु उससे सामाजिक में शृङ्गारादिकी प्रतीति
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