Book Title: Natyadarpan Hindi
Author(s): Ramchandra Gunchandra, Dashrath Oza, Satyadev Chaudhary
Publisher: Hindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
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का० १४०, सू० २०२-२०४
(२०) प्रभोषम
[ सत्र २०२ ] --ऽपराधान्नघृण्यं श्रग्रय बन्ध-वधादिभिः
॥ [३७] १३६ ॥ 'दुष्ट' हिंस्रत्वानृतवादित्व- वञ्चकत्वादियुक्ते । अपराधादकार्य कारित्वाद् दौर्मुख्य-चौर्यादिरूपाद विभावाद् यद् राजादेर्नैर्धृएयं निर्दयत्वं तदौप्रयम् । तच्च बंधन्वधाभ्याम् ! आदिशब्दात् ताडन-निर्भर्त्सन-स्वेद-शिरः कम्पादिभिरनुभावैरभिनेतव्यमिति || [३७] १३६ ॥ (२१) अथ हर्षः
[ सूत्र २०३ ] - हर्षः प्रसत्तिरिष्टाप्तेरत्र स्वेदाश्रु - गद्गदाः ।
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'प्रसत्ति' श्वेतोविकासः । 'इष्ट' प्रियसंयोगाप्रियसंयोगनिवृत्ति देव-गुरु-राजप्रसाद-भोजनाच्छादन-धन-पुत्रादिलाभ - पुत्रादिगतहर्ष - विषयोपभोगोत्सवादि । 'गद्गदो' वाष्परूद्धकण्ठस्य वाक् । उपलक्षणान पुलक- प्रियभापरण-नेत्रमुखप्रसादादेरभावस्य ग्रह हति ।
(२२) अथ विषादः
[ सूत्र २०४ ] - विषादस्तान्तिरिष्टस्यानाप्तेनिश्वास चिन्तनः ॥
तृतीयो विवेकः
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[ ३४१
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(२०) अत्र उपता [रूप व्यभिचारिभावका लक्षण करते हैं]
[ सूत्र २०२] - अपराधके कारण दुष्ट पुरुषके प्रति वध-बन्धावि द्वारा जो नियता [ का प्रकाशन है ] वह 'उग्रता' कहलाती है । [३७] १३६ ।
[३८] १४० ॥
दुष्ट अर्थात् हिंसा करने वाले, झूठ बोलने वाले, अथवा धोखा देने वाले [के प्रति ]. अपराधके कारण अर्थात् प्रनुचित कार्य करने, ऊटपटांग बात करने, चोरी, प्रादि रूप कारणों से जो राजा श्रादि को निठुरता अर्थात् निर्दयता, उसको 'उग्रता' कहा जाता है उसका अभिनय वध तथा बन्धन के द्वारा किया जाता है । प्रादि शब्दसे मारने-फटकारने सोना और सिर हिलाने यादि अनुभावोंके द्वारा उसका अभिनय होता है ।। [३७] १३६ ॥
(२१) अब 'हर्ष' [ व्यभिचारिभावका लक्षण करते हैं---
[ सूत्र २०३ ] – इष्टको प्राप्तिके कारण [मनकी] प्रसन्नता हर्ष होता है। इसमें स्वेद, प्रभु धौर गद्गदता हो जाती है ।
प्रसन्नता प्रर्थात् चित्तका विकास। इष्ट प्रर्थात् प्रियका संयोग प्रथवा प्रप्रियके संयोग की निवृत्ति, देवता, गुरु, राजा प्रथवा स्वामीकी कृपाकी प्राप्ति, भोजन, श्राच्छादन, वस्त्र, धन, पुत्रादिकी प्राप्ति, पुत्रादिको प्रसन्नता, विषयोंके उपभोग श्रौर उत्सव श्रादि [ का ग्रहरण होता है ] । प्रांसुश्रोंसे गला भरे हुएकी वाणी 'गद्गद' कहलाती है । उसके उपलक्षरण रूप होनेसे रोमांच, प्रिय भाषण, प्रांखों और मुखको प्रसन्नता प्रादि अनुभावोंका ग्रहण भी होता है ।
(२२) श्रम विषाद (का लक्षरण करते हैं]
[ सूत्र २०४ ] -- इष्ट वस्तुके न मिलनेसे [चित्तका] अनुत्साह 'विवाद' कहलाता है । निःश्वास तथा चिन्ताके द्वारा [ उसका अभिनय किया जाता है] । [३८] १४०१
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