Book Title: Natyadarpan Hindi
Author(s): Ramchandra Gunchandra, Dashrath Oza, Satyadev Chaudhary
Publisher: Hindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
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नाट्यदर्पणम् [ का० १३६, सू० २००-२०१
(१८) अथ निद्रा
[ सूत्र २०० ] - इन्द्रियाव्यापृतिनिद्रा, खेवावे र्द्धकम्पिनी ||
[३६] १३८ ॥
इन्द्रियाणि स्पर्शनादीनि, न तु मनः, तस्य निद्रायामपि व्यापारात् । 'अव्याप्रति' विषयग्रहणोपरतिः । आदिशब्दादालस्य दौर्बल्य-रात्रि जागरण-प्रत्याहार-मदश्रम - क्लम-चिन्ता-शयालतादेर्विभावस्य ग्रहः । मूर्द्धकम्पनेन जृम्भण-वदनविकासनिःश्वास-नेत्रघूर्णन अङ्गभङ्ग-अक्षिमीलन-सर्वक्रियासम्मोहादयोऽनुभावा उपलक्ष्यन्त इति || [३८] १३८ ॥
(१६) अथ सुप्तम्
[ सत्र २०१ ] - सुप्तं निद्राप्रकर्षोऽत्र स्वप्नायित - खमोहने ।
'प्रकर्षो' गाढतमावस्था । स्वप्नस्य तात्कालिक विषयज्ञानस्य श्रयितं प्रतीतितस्तत् ' स्वप्नायितं ' प्रलपितम् । खानां मनःषष्ठानामिन्द्रियाणां मोहनमतिशयेन विषयवैमुख्यम् । निद्रायां मनसोऽवधानमस्ति । अत्र तु तदपि मनागुपरुध्यत इति भेदः । विभावास्तु निद्रागता एवात्र ग्राह्याः ॥
गिरने और इन्द्रियोंके व्यापारके प्रभाव आदि अनुभावोंका प्रहरण होता है ।
(१८) अब निद्रा [रूप व्यभिचारिभावका लक्षरण करते हैं ]
[ सूत्र २००] थकावट ग्राविसे उत्पन्न इन्द्रियोंके व्यापारका प्रभाव 'मित्रा' कहलाता है । उससे सिर हिलने लगता है । [३६] १३८ ।
इन्द्रियोंसे त्वचां प्रादि [ ज्ञानेन्द्रियोंका हो ग्रहरण करना चाहिए ] मनका नहीं । क्योंकि उसका व्यापार तो निद्राकालमें भी होता रहता है । व्यापारका प्रभाव प्रर्थात् [इन्द्रियोंका ] विषयोंके ग्रहणसे हट जाना । प्रादि शब्द से प्रालस्य, दौर्बल्य, रातमें जगने, अधिक भोजन, मदके सेवन, परिश्रम, थकावट, चिन्ता, सोनेके स्वभाव यादि [निद्राके विभावों अर्थात् ] कारणोंका ग्रहरण होता है। सिर हिलानेसे जम्हाई माने, लम्बी निःश्वास छोड़ने, घुमाने, अंगड़ाई प्राने, श्रीलं झपकने और सारी क्रियाघ्रोंको भूल जाने आदि अनुभावोंका ग्रहण होता है । [३६] १३८ ॥
(१६) अब सुप्त [नाम व्यभिचारिभावका लक्षण करते हैं ]
[ सूत्र २०१] - - प्रबल निद्राका थाना 'सुप्त' [नामक व्यभिचारिभाव] कहलाता है । इस में बना - [स्वप्नायित] और मन सहित सब इन्द्रियोंका विक्योंसे प्रत्यन्त वैमुख्य [मोहन] हो जाता है ।
[ निद्राका ] प्रकर्ष अर्थात् गाढतम अवस्था | स्वप्नकी प्रर्थात् उस समय [स्वप्न में होने वाले] ज्ञानकी 'प्रायितं' अर्थात् प्रतीति जिसमें हो उस बनेको 'स्वप्नायित' कहते हैं । 'ख' अर्थात् मनके सहित [पाँचों कुल मिलाकर ] छहों इन्द्रियोंका 'मोहन' अर्थात् विषयोंसे प्रत्यन्त विमुखता । मित्रामें मनकी वृति रहती है यहाँ [सुप्तिमें] तो वह भी बिल्कुल निरुद्ध हो जाती है। यह [मित्र और सुप्सि इन दोनोंका ] भेद है। निद्रामें कहे हुए विभाव हो यहाँ [सुप्तिके भी कारन ] समझने चाहिए ॥
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