Book Title: Natyadarpan Hindi
Author(s): Ramchandra Gunchandra, Dashrath Oza, Satyadev Chaudhary
Publisher: Hindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi

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Page 455
________________ ३३८ ] नाट्यदर्पणम् [ का० १३६-३७, सू० १६६-६८ (१४) अथ धृतिः -- [सूत्र १९६]--धृतिर्जानेष्टलाभादेः सन्तुष्टिर्देहपुष्टिकृत् ॥ [३४] १३६ ॥ ज्ञानं विवेकज्ञानं बाहुश्रुत्यं वा । इष्टस्येप्सितम्य लाभः प्राप्तिः। आदिशब्दात शौचाचरण-क्रीडा-देवतादिभक्ति-विशिष्टशक्त्यादेविभावस्य ग्रहः । देहपुष्टिरुपलक्षए गताननुशोचनादीनामनुभावानापिति ।। [३४] १३६ ॥ (१५) अथामर्षः - [सूत्र १९७]-क्षेपादेः प्रतिकारेच्छाऽमर्षोऽस्मिन् कम्पनादयः । क्षेपस्तिरस्कारः। आदिशब्दादपमानादेविभावस्य ग्रहः। अपकारिणि स्वयमपकरणाभिलाषः प्रतिकारेच्छा। परस्यापकाराभावेऽपि परानर्थकरणाभिप्रायरूपः क्रोध इत्यनयोर्भेदः। अस्मिन्नमर्षे । श्रादिशब्दादधोमुखचिन्तन-प्रस्वेद-उत्साह-ध्यानोपायान्वेषण-तर्जन-ताडनादीनामनुभावानां ग्रह इति ।। (१६) अथ मरणम्[सूत्र १९८]-व्याध्यादेमृत्युसङ्कल्पो मरणं विकलेन्द्रियम् ॥[३५] (१४) अब ति [रूप व्यभिचारिभावका लक्षण करते हैं [सूत्र १४६]---ज्ञान अथवा इष्टप्राप्ति प्रादिसे उत्पन्न सन्तोष 'ति' है। और वह शरीरको पुष्टि आदिका करने वाला होता है । [३४] १३६ । ज्ञान अर्थात् विवेकज्ञान अथवा बहुश्रुतता। इष्ट अर्थात् मनचाही वस्तुका लाभ अर्थात् प्राप्त होना। आदि शब्दसे शुद्धाचरण क्रीडा [मनोरंजन], देवताओंको भक्ति, विशेष भावित आदि कारणों [विभाव] का ग्रहरण होता है। देहपुष्टि शब्द, बीती बातका शोक न करने प्रादि अनुभावोंका भी उपलभरण है ।। [३४] १३६ ॥ (१५) अब अमर्ष [रूप व्यभिचारिभावका लक्षण करते हैं] [सूत्र १४७] :- तिरस्कार प्रादिके कारण उत्पन्न बदला लेनेको इच्छा 'प्रमर्ष' है । इसमें कम्पन प्रादि [अनुभाव होते हैं। क्षेप प्रर्थात् तिरस्कार । प्रादि शब्दसे अपमानादि विभावोंका ग्रहण होता है। अपकारीके प्रति स्वयं उसका प्रपकार करनेकी इच्छा 'प्रतिकारेच्छा' कहलाती है। दूसरेके द्वारा अपकार न किए जानेपर भी दूसरेको हानि पहुंचानेका अभिप्राय क्रोष' कहलाता है। यह इन दोनोंका भेद है । इसमें अर्थात् अमर्ष में । मादि शब्दसे सिर नीचा करके सोचना, पसीना माना, उत्साह, ध्यान, उपायोंके खोजने, फटकारने, पोटने प्रादि अनुभावोंका भी ग्रहण होता है। (१६) अब मरण [रूप व्यभिचारिभावका लक्षण करते हैं] [सूत्र १४८]-व्याधि प्रादिके कारण मरनेको इच्छा करना 'मरण' कहलाता है [अर्थात् यहाँ मरण शब्दसे प्रारण निकल जाने रूप वास्तविक मरणका प्रहण नहीं होता है। स्योंकि नाटकोंमें वास्तविक मरणका दिखलाना निषिश माना गया है । और वह इन्द्रियोंको विकल करने वाला होता है। [३५] १३७ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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