Book Title: Natyadarpan Hindi
Author(s): Ramchandra Gunchandra, Dashrath Oza, Satyadev Chaudhary
Publisher: Hindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi

View full book text
Previous | Next

Page 456
________________ का० १३७, सू० १६६ ] तृतीयो विवेकः [ ३३६ व्याध्यादयो वात-पित्त-श्लेष्मवैषम्य-ज्वर-विचर्चिका-पिटकादयः। आदिशब्दात् शस्त्राभिघात-विषपान-अहिदंश-श्वापद-गज-तुरगाद्याक्रमण-वाहनोच्चस्थानपतनादेविभावस्य ग्रहः । 'मृत्युसंकल्पो' दुष्पतिकारोऽयमनर्थस्तस्मादवश्यं मरिष्यामीत्यध्यवसायः । विकलानि स्वविषयग्रहणं प्रत्यसमर्थानीन्द्रियाणि यस्मिन् । उपलक्षणाद् विह्वलचेष्टितहिक्का-निःश्वास-परिजनानवेक्षण - अव्यक्ताक्षरभाषण - वदनदैन्य-सहसाभूमिपतनकम्पन - स्फुरण-कार्य - फेन-जाड्य - हस्तस्कन्धभङ्गानपेक्षितगात्रसञ्चारादयोऽनुभावा गृह्यन्ते। प्राणनिरोधरूपं तु मरणं न नाट्ये प्रयोज्यमिति, न तस्य विभावानुभावस्वरूपाणि प्रतिपाद्यन्त इति ॥ १३७ ।।। (१७) अथ मोहः - [सूत्र १९६]-अचैतन्यं प्रहारादेर्मोहो,ऽत्राघूर्णनादयः ।. _ 'अचैतन्य' प्रवृत्ति-निवृत्तिज्ञानाभावो न तु सर्वथा गतचेतनत्वम् । 'प्रहारो' मर्म. ण्यभिघातः। आदिशब्दात् तीव्रवेदना-अशक्यप्रतिकार-चौर-राजा-अहि-व्याघ्राद्याक्रमण-देशविप्लव-अग्न्युदकाद्युपघात-वैरिदर्शन-श्रवणादेविभावरय ग्रहः । अत्र मोहे। आदि शब्दाद् भ्रमण-पतनेन्द्रियाव्यापारादेरनुभावस्य ग्रहः । व्याधि अर्थात् वात, पित्त कफके वैषम्यसे उत्पन्न ज्वर विचचिका खाज और फोड़ाफुन्सी प्रादि । प्रादि शब्दसे शस्त्रप्रहार, विषपान, साँपके काटने, हिंस्र जन्तुओं, हाथी, घोड़े माविक प्राक्रमण, सवारी अथवा ऊँचे स्थानसे गिरने प्रादि विभावोंका ग्रहण होता है। [वास्तवमें तो मरने की इच्छा भी कोई नहीं करता है इसलिए ] मृत्युसंकल्पसे यहाँ, यह प्रापत्ति ऐसी है जिसका प्रतिकार असम्भव है इसलिए अवश्य ही मर जाऊँगा इस प्रकारका निश्चय [मृत्युसंकल्प पदसे गृहीत होता है । विकल अर्थात् अपने विषयको ग्रहण करनेमें असमर्थ इन्द्रियां जिसमें हो जाती हैं [वह मृत्युसंकल्प विकलेन्द्रिय मरण रूप हमा] । उसके उपलक्षरण रूप होनेसे विह्वल चेष्टानों, हिचकी, निःश्वास, परिजनोंको न देखने, अस्पष्ट शादोंका उच्चारण, चेहरेकी दीनता, सहसा पृथिवीपर गिर पड़ने, कांपने लगने, फड़कने, कृशता, फेन गलने, जड़ता, हाथ कन्धे आविके टूटने-फूटनेको चिन्ता न करके अङ्गोंके संचालन प्रावि अनुभावोंका ग्रहण होता है। प्राण बन्द हो जाना रूप [वास्तविक मरण तो नाटकमें नहीं दिखलाना चाहिए । इसलिए उसके विभाव और अनुभावोंके स्वरूपोंको यहाँ प्रतिपादन नहीं किया है ।[३५] १३७ ।। (१७) अब मोह [रूप व्यभिचारिभाव का लक्षण करते हैं] - [सूत्र १९६] -प्रहार आदिसे उत्पन्न प्रचैतन्य 'मोह' कहलाता है। इसमें चक्कर पाना प्रादि होता है। अचैतन्यका अर्थ [कर्तव्य व प्रकर्तव्यमें] प्रवृत्ति-निवृत्तिके ज्ञानका न रहना है। सर्वथा चैतन्यका प्रभाव [प्रचंतन्य शम्बसे विवक्षित नहीं है ] प्रहार अर्थात् मर्मस्थलपर प्राघात । प्रादि शम्बसे तीव्र वेदना, जिनका प्रतिकार सम्भव न हो इस प्रकारके चोर, राजा, सर्प, व्याघ्र प्राविक प्राक्रमण, वेश-विप्लव, आग-पानी आदिके उपद्रव, शत्रुके दिखलाई देने अथवा सुनाई रेने पावि विभावोंका ग्रहण होता है। इसमें अर्थात् मोहमें। प्रावि शम्बसे चक्कर लाने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 454 455 456 457 458 459 460 461 462 463 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506 507 508 509 510 511 512 513 514 515 516 517 518 519 520 521 522 523 524 525 526 527 528 529 530 531 532 533 534 535 536 537 538 539 540 541 542 543 544 545 546 547 548 549 550 551 552 553 554