Book Title: Natyadarpan Hindi
Author(s): Ramchandra Gunchandra, Dashrath Oza, Satyadev Chaudhary
Publisher: Hindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi

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Page 459
________________ ३४२ ] नाट्यदर्पणम् [ का० १४१, सू० २०५-२०६ 'तान्ति'रनुत्साहाक्रान्तश्चित्तसन्तापः। 'इष्ट' प्रारब्धनिर्वहण-दैवाप्रतिकूलत्वादि । तस्यानाप्तिरलाभो विपरीतलाभो वा। चिन्तनमुपायानाम् । बहुवचनात् सहायान्वेषण-वैमनस्यादिभिर्मध्यमोत्तमगतैर्मुखशोष-निद्रा-ध्यान-जिह्वापरिलेहादिभिस्त्वधमगतैरनुभावैरभिनीयत इति ॥ [३८] १४० ॥ (२३) अथोन्मादः[सूत्र २०५]-मनोविप्लुतिरुन्मादो ग्रहदोषैरयुक्तकृत् । विप्लुतिर्विसंस्थुलता,' क्वचिदप्यविश्रान्तिरिति यावत् । ग्रह-दोषौ अपस्मारे व्याख्यातौ । अयुक्तमनुचितं गीत-नृत्त-पठितोत्थित-शयित-प्रधावित-रुदित-आक्रष्टअसम्बद्धप्रलापन - अनिमित्तहसित-भस्मपांस्ववधूलन- निर्माल्य - वीरघटवक्त्रशरावाभरणोपभोगादि । अयं चोत्तमस्य विप्रलम्भे, अधमस्य करुणे व्यभिचारी । अपस्मारस्तु बीभत्स-भयानकयोः । स च मनोवैकल्यम् , अयन्तु मनोऽनवस्थितिरिति भेद इति । (२४) अथ दैन्यम्[सूत्र २०६]-प्रापदः स्वान्तनीचत्वं दैन्यं काावगुण्ठनैः ॥ ॥ [३६]१४१॥ तान्ति अर्थात् अनुत्साहसे युक्त चित्तका सन्ताप । इष्ट अर्थात प्रारम्भ किए हुए कार्यकी समाति भाग्यको प्रप्रतिकूलता प्रादि । उसका प्राप्त न होना अथवा विपरीत [अर्थात् पनिट] को प्राशि । चिन्तन अर्थात् उपायोंके चिन्तनद्वारा [उसका अभिनय होता है। चिन्तनः पदमें] बहुवचनके प्रयोगसे सहायकोंकी खोज पोर वैमनस्य प्रादि मध्यम तथा उत्तम पात्रगत [अनुभावों के द्वारा तथा] और मुख सूखने, नीद, ध्यान, जीभ फेरने ग्रादि प्रधमपात्रगत अनुभावोंकेद्वारा उसका अभिनय किया जाता है ।[३०] १४०॥ (२३) अब उन्मादका [लक्षरण करते हैं] [भूत-पिशाचादि रूप] ग्रह तथा [वात पित्तादि रूप] दोषोंके कारण मनका पत्र हो जाना 'उन्माद' कहलाता है और उसमें अनुचित कार्य करने लगता है । [सूत्र २०५] -'विप्लुति' अर्थात् मस्थिरता, कहीं भी चित्तका न लगना । ग्रह तथा दोष दोनोंकी व्याख्या अपस्मारमें की जा चुकी है। प्रयुक्त अर्थात् अनुचित गाना, नाचना, पढ़ना, उठना, भागना, रोना, चिल्लाना, असम्बद्ध बकवाद करना, बिना बातके हंसना, राख या धूल फेंकना, देवताओंकी वस्तुओं [निर्माल्य] पीपल मादिके वृक्षोंपर टाँगे हुए घड़ों, [वीरघट] करवा, सकोरे आदि और प्राभरणाविका उपभोगादि । यह [उन्माद] उत्तमके विप्रलम्भमें प्रौर मधमके करुणमें व्यभिचारिभाव होता है। और अपस्मार बीभत्स तथा भयानक रसोंमें [व्यभिचारिभाव होता है। [यह उन्माद तथा अपस्मारका एक भेद है। उनका दूसरा भेद यह भी है कि वह [अर्थात् अपस्मार]मनको विकलतामय होता है और यह [उन्माद] मनको अस्थिरतारूप होता है यह इन [उन्माद तथा अपस्मार का [दूसरा] भेद है। (२४) अब वैन्य [नामक व्यभिचारिभावका लक्षण करते हैं] [सूत्र २०६]-मापत्तियों के कारण मनको विकलता 'छैन्य' कहलाती है । [बहरेको] कृष्णता और ढकनेके द्वारा उसका अभिनय किया जाता है। [३९]१४१॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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