Book Title: Natyadarpan Hindi
Author(s): Ramchandra Gunchandra, Dashrath Oza, Satyadev Chaudhary
Publisher: Hindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi
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का० १०५, सू० १५७ ] तृतीयो विवेकः
[ २७ चारात् पूर्वरङ्गान्ते इति द्रष्टव्यम् । नान्दी हि पूर्वरङ्गस्याङ्गम् । अत्र च पक्षे प्रामुखार्थस्य सूत्रधारविषयत्वान्मुखसन्धेः प्रभृति कवेर्व्यापारः । है। यहां 'नान्यन्ते' इस पदमें अवयवमें समुदायका उपचार होनेसे [नान्ची पद समस्त पूर्वरङ्गका बोधक है यह समझना चाहिए। क्योंकि नान्दी पूर्वरङ्गका अङ्ग है। किन्तु यहाँ उस प्रङ्ग या अवयववाचक 'नान्दी' पदसे जिसका वह अङ्ग या अवयव है उस अजी-रूप समस्त पूर्वरङ्गका ग्रहण होता है । अर्थात् समस्त पूर्वरङ्गका विधान समाप्त हो जानेपर सूत्रधार प्रविष्ट होकर मुख्य नाटकके पात्रके प्रवेशको प्रस्तावना प्रारम्भ करता है] इस पक्ष प्रामुखका [प्रतिपाद्य पर्थ सूत्रधारसे सम्बन्ध रखता है, इसलिए मुखसन्धिसे पहिले-पहिले [अथवा मुखसन्धिके प्रारम्भ होनेसे पूर्व तक जो कुछ वर्णन होता है वह सब ] कविका व्यापार होता है।
इसका अभिप्राय यह है कि मुखसन्धि, मुख्य नाटकका अङ्ग है, इसलिए मुखसन्धिसे मुख्य नाटकका प्रारम्भ होता है। उस मुख्य नाटक वाले भागमें जितना व्यापार होता है वह कविके द्वारा वरिणत होनेपर भी कविका व्यापार नहीं होता है अपितु जिन पात्रोंके द्वारा उसका कथन होता है उन पात्रोंका व्यापार होता है। कवि केवल उस व्यापारको सुनानेका निमित्त बनता है। किन्तु मुखसन्धि या मुख्य नाटकका प्रारम्भ होनेसे पहिले 'प्रामुख' तक का जो व्यापार होता है वह सब कविका अपना व्यापार होता है । काव्यशास्त्रके लक्षणग्रन्थों में ध्वनि-भेदोंके निरूपरणके प्रसङ्गमें 'कविप्रौढोक्तिसिद्ध' और 'कविनिबद्धवक्तृप्रौढोक्तिसिद्ध' दोनों व्यङ्गयोंको अलग-अलग माना है । यद्यपि कविनिबद्ध वक्ता की उक्ति कविके द्वारा ही निबद्ध होने से कविप्रोढोक्ति में पा सकती है किन्तु स्वयं कविकी उक्तिसे कविनिबद्ध वक्ता की उक्ति को अलग माना गया है । इसी प्रकार यह कविण्यापार और कविनिबद्ध-वक्तृव्यापार को अलग-अलग मानकर ग्रन्यकारने 'प्रामुख' तकके व्यापारको कवि-व्यापार कहा है। उसके प्रागे मुख्य नाटकके भीतर होने वाला सारा व्यापार कविके द्वारा वणित होने पर भी कवि व्यापार नहीं अपितु कवि-निबद्ध पात्रों या वक्ताओंका व्यापार है, यह ग्रन्थकारका अभिप्राय है।
_ 'प्रामुख' के इस प्रसङ्ग में ग्रन्थकारने सूत्रधार तथा स्थापक, नटी, विदूषक, पारिपाश्विक मार्ष आदि अनेक पदोंका प्रयोग किया है। नाटकका अभिनय करनेवाले नटवर्गका प्रधान नेता नाट्यके सारे [सूत्र] का कार्य सञ्चालन करता है इसलिए. उसको 'सूत्रधार' कहा जाता है । इस कार्य में सूत्रधारके दो प्रधान सहायक होते हैं । एक नटी और दूसरा पारिपाश्विक । नटो सूत्रधारकी स्त्री है . जो उसके कार्य में उसकी प्रमुख सहायिका होती है। शेष नटों में से जो सूत्रधारका प्रधान सहायक होता है वह 'पारिपाश्विक' कहलाता है। सूत्रधार वार्तालाप करते समय नटीको 'आर्या' कहकर और पारिपाश्विकको 'माष' कहकर सम्बोधन करता है । यह सूत्रधार, नटी तथा पारिपाश्विक तथा 'मार्ष' पदोंकी व्याख्या हो गई । इसी पारिपाश्विकके लिए 'विदूषक' पदका प्रयोग भी किया गया है। वैसे नाटक में राजा आदि मुख्य नायकका प्रधान सहायक विदूषक होता है। उसका कार्य राजाके गुप्त प्रणय-व्यापार प्रादिवे उसकी सहायता करना, और हर समय राजाका मनोरञ्जन करना होता है। यहाँ प्रामुखके प्रसंगमें जो विदूषकका नाम लिया गया है यह उस मुख्य विदूषकका ग्राहक नहीं है । अपितु
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