Book Title: Natyadarpan Hindi
Author(s): Ramchandra Gunchandra, Dashrath Oza, Satyadev Chaudhary
Publisher: Hindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi

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Page 422
________________ का० १११ सू० १६५ ] तृतीयो विवेकः [ ३०५ भाविर्भावकत्वात् श्रम - चिन्तादेश्च व्यभिचारिणो भयोत्साहादिपोषकत्वान्, स्तम्भवेपथु-स्वेदादेश्चानुभावस्य शृङ्गार भयानकदिजत्वात् क्वचिदपि न पार्थको नियमः । सामग्रीपतितस्य तु नियम इति सामग्री एवैषामाविर्भाविका पोषिका ज्ञापिका चेति ॥[८]११०|| sir प्रस्तुतानेव रसभेदानाह [सू० १६५ ] – शृङ्गार- हास्य-करुरगाः रौद्र-दीर-भयानकाः । बीभत्साद्भुत शान्ताश्च रसाः सद्भिर्नव स्मृताः ॥ [![६] १११॥ तत्र कामस्य सर्वजातिसुलभतया अत्यन्तपरिचितया च सर्वान् प्रति हृद्येति पूर्व शृङ्गारः । ततः शृङ्गारानुगामित्वाद् हास्यः । ततो हास्यविरोधित्वात् करुणः ! कामस्य वार्थत्वात् ततोऽर्थप्रधानो रौद्रः । कामार्थयोश्व धर्मजन्यत्वात् ततो धर्मप्रधानो वीरः । अस्य च भीताभयप्रदानसारत्वात् ततो भयानकः । भीतस्य च सात्त्विकैजु गुप्सनीयप्रधान माना जाता है । (१) व्याघ्रादि विभावोंके [ रौद्र रसके स्थापिभाव ] क्रोध, तथा [भयानक रसके स्थायिभाव ] भयके श्राविर्भावक होनेसे, (२) श्रम तथा चिन्तादि व्यभिचारिभावोंके [ भयानकके स्थायिभाव ] भय और [ वीररस के स्थायिभाव ] उत्साहादि दोनोंका पोषक होनेके कारण, (३) ! इसी प्रकार ] स्तम्भ, वेपथु आदि अनुभावोंके श्रृंगार तथा भयानक दोनोंसे जन्य होनेके कारण अलग-अलग [ रसोंके विभाव श्रनुभाव तथा व्यभिचारिभाषों के निश्चित रूपसे अलग ] होनेका कोई नियम नहीं है। [किसी विशेष रसकी] सामग्री में था जानेपर तो नियम है । इसलिए सामग्री हो इनको उत्पन्न करनेवाली, पोषरण करनेवाली और ज्ञापन करानेवाली होती है [ यह समझना चाहिए] ।। [८] ११०॥ अब [ धागे ] प्रस्तुत रसभेदोंका ही वर्णन [ प्रारम्भ] करते हैं [ सूत्र १६५ ] - १. श्रृंगार, २. हास्य, ३. करुरण, ४ रौद्र, ५. वीर, ६. भयानक, ७. बीभत्स, ८. अद्भुत और ६. शान्त ये नौ रस सहृदयोंने माने है ।। [६] १११ ॥ उनमें कामके सब जातियोंमें सुलभ, और अत्यन्त परिचित होनेसे तथा सबके प्रति उसकी मनोहरता होती है इस कारण सबसे पहिले उसका ग्रहण किया गया है। श्रृंगारका अनुगामी होनेके कारण उसके बाद हास्य [ कहा ] है । हास्यका विरोधी होनेसे उस [हास्य ] के बाद करुण रखा गया है। [इस प्रकार हास्य प्रौर करणका काम से सम्बन्ध दिखलाकर ब रौद्रका भी कामसे सम्बन्ध दिखलाते हैं ] । कामके अर्थज होनेसे उस [करण] के बाद प्रर्थप्रधान रौद्र [ रखा गया है] काम और प्रथं दोनोंके धर्मजन्य होने के कारण उस [रौद्ररस ] के बाद धर्मप्रधान वीररस रखा गया है । यह वीर रस मुख्य रूपसे भयभीतोंको प्रभय प्रदान करनेवाला होता है इसलिए [भयके साथ सम्बद्ध होनेसे ] उसके बाद भयानकका ग्रहण किया गया है । सात्विक वृत्तिके लोग भयकी निन्दा करते हैं इसलिए [भयका जुगुप्साके साथ सम्बन्ध होनेसे उसके बाद [ जुगुप्सा स्थायिभाव वाला ] बीभत्स रस रखा गया है । बीभत्स का विस्मयके द्वारा नाश हो जाता है इसलिए [ बीभत्सका विस्मयके साथ सम्बन्ध होनेसे ] उसके बाद [ विस्मय स्थायिभाव वाला ] अद्भुत रस रखा गया है। धर्मका मूल कारण शम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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