Book Title: Natyadarpan Hindi
Author(s): Ramchandra Gunchandra, Dashrath Oza, Satyadev Chaudhary
Publisher: Hindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi

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Page 436
________________ का० १२३, सू० १७७ ] तृतीयो विवेकः [ ३१६ मुहुः कण्ठे लग्नस्तरलयति वाष्पः स्तनतटं, प्रियो मन्युर्जातस्तव निरनुरोधे न तु वयम् ॥" यथा राघवाभ्युदये "तल्लावण्यमनन्यवृत्तिवचसां तत् कौशलं पेशलं, तत् सौभाग्यमभाग्यमर्त्य विमुखं तद् यौवनं पावनम् । एकेन प्रियसङ्गमेन मनसो विश्रामधाम्ना विना, व्यर्थ सा हृदि सर्वमेव मनुते व्यालोलनेत्रोत्पला ॥" यथा वास्मदुपजे मल्लिकामकरन्दे प्रकरणे मकरन्दः "श्रास्यं हास्यकरं शशाङ्कयशसां बिम्बाधरः सोदरः, पीयूषस्य, वांसि मन्मथमहाराजस्य तेजांसि च । दृष्टिविष्टपचन्द्रिका स्तनतटी लक्ष्मीनटीनाट्यभूः, औचित्याचरणं विलासकरणं तस्याः प्रशस्यावधेः ॥" यथा वास्मदुपज्ञायां वनमालायां नाटिकायाम् ___ "राजा-[दमयन्ती प्रति]"दृष्टिः कथं जरठपाटलपाटलेयं कम्पः किमेष पदमोष्ठदले बबन्ध । नारङ्गरङ्गहरणप्रवणः प्रियेऽस्य वक्त्रस्य कुंकुममृतेऽरुणिमा कुतोऽयम् ।।" एषु रसप्रयत्नेनैव शब्दार्थालंकारलाभः ॥ [२१] १२३ ॥ इन अपरोंके रसको उष्ण निःश्वासोंने पी डाला [पर हमें न मिल सका] और तुम्हारे मासू गलेमें लिपटते हुए स्तनोंके [ऊपर गिरकर उनके] तटको कम्पित कर रहे हैं [पर हम उसके छूनेके लिए तरस रहे हैं ] जान पड़ता है कि [प्राज] क्रोध ही तुम्हारा प्रिय बन गया है, हम नहीं।" अथवा जैसे 'राघवाभ्युदय में-- "वह चञ्चल नेत्रों वाली [ज्यालोलनेत्रोत्पला, अपने] उस [लोकोत्तर] लावण्यको, अन्यत्र न पाए जाने वाले वचनोंके उस सुन्दर कौशलको, प्रभाग्यशाली पुरुषोंको प्राप्त न हो सकने वाले उस सौभाग्यको, और उस पवित्र [अपने] यौवनको, हृदयको विधाम देने वाले एकमात्र प्रियसङ्गमके बिना इस सबको व्यर्थ ही समझती है।" अथवा जैसे हमारे बनाए हुए 'मल्लिकामकरन्द' नामक प्रकरण में मकरन्द "सौन्दर्यको चरम सीमा [प्रशस्यावधेः] रूप उस [नायिका] का मुख चन्द्रमाको कोति का उपहास करने वाला है. बिम्बाधर अमृतका सहोदर है, वारणी मन्मथ महाराजके तेजके समान है, दृष्टि स्वर्गको चाँदनी-सी है, स्तनतटी लक्ष्मी रूप नटोको कोडाभूमि है और उचित पाचरण विलासको उत्पन्न करने वाला है।" अथवा जैसे हमारी बनाई हुई 'वनमाला' नाटिकामें"राजा [रमयन्तीके प्रति]-. हे प्रिये ! तुम्हारी] दृष्टि पुराने लोध्र [पाटल वृक्ष विशेष] के समान लाल क्यों हो रही है ? तुम्हारे मोठमें कम्प क्यों हो रहा है ? और बिना ही कुंकुमके लगाए तुम्हारे मुसपर नारंगीके रंगको भी पराजित करने वाली यह लालिमा क्यों हो रही है? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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