Book Title: Natyadarpan Hindi
Author(s): Ramchandra Gunchandra, Dashrath Oza, Satyadev Chaudhary
Publisher: Hindi Madhyam Karyanvay Nideshalay Delhi

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Page 442
________________ का० १२५, सू० १५० ] तृतीयो विवेक: [ ३२५ अत्र शृङ्गारप्रतिकूलस्य शांतस्यानित्यताप्रकाशरूपो विभावो विरुद्धः । (क २) क्वचिदकाण्डे प्रथनम् । यथा वेणीसंहारे धीरोद्धतप्रकृतेरपि दुर्योधनस्य भीष्म-प्रमुखमहावीरलक्षक्षयकारिणि प्रवृत्ते समरसंरम्भे भानुमतीं प्रति शृङ्गारवर्णनम् । (क ३) क्वचिदकाण्डे विच्छेदो यथा वीररचिते राघव भार्गवयोर्धाराधिरूढे वीररसे 'कणमोचनाय गच्छामि' इति राघवस्योक्तिः । ( क ४) क्वचिदुत्तमाधम- मध्यमानां प्रकृतीनामन्यथा वर्णनम् । यथाउत्तमानां हास्य-बीभत्स-करुण-भयानक- श्रभुतप्रकर्षः । ( क ५) मध्यमाऽधमानां तु श्रमाम्यः श्रृंगारः, वीर- रौद्र-शांतप्रकर्षश्च । (क ६) उत्तमेष्वपि दिव्येषु सम्भोगेट गारवर्णनं पित्रोः सम्भोगवर्णनसमं यथा कुमारसम्भवे उमा-महेश्वरयोः । (क ७) दिव्येषूत्तमेष्वपि सद्यः फलदक्रोध-स्वः पातालगमन-समुद्रलंघनाद्युत्साहवर्णनम् । साथ रमरण करने लगीं । ( क१) इसमें श्रृंगार रसके प्रतिकूल प्रनित्यता प्रकाशन रूप शांत रसके विभावोंका वर्णन [ प्रकृत श्रृंगार रसके] विपरीत है । (क २) कहीं बेमौके विस्तार कर देना [ भी रस दोध होता है] जैसे बेणीसंहार [के द्वितीया ] में धीरोद्धत प्रकृतिके [नायक ] होनेपर भी भीष्म प्रादि लाखों वीरोंका नाश कर डालने वाले [भयङ्कर] युद्धके प्रारम्भ होनेपर भी भानुमतीके प्रति शृंगारका बर्णन [ प्रकाण्ड-प्रथन रूप रसदोषका उदाहरण है ] । ( क ३) कहीं अवसर के बिना ही रसका विच्छेद [कर देना भी रसदोष होता है] जैसे - महावीरचरित्र में रामचन्द्र तथा परशुरामजी के बीच वीररसके पूर्ण प्रवाहपुर ग्रा जानेपर [ अच्छा अब मैं ] 'कंगन खोलनेके लिए जा रहा हूँ' यह रामचन्द्रका कथन [प्रकाण्डमें रसका विच्छेदक होनेसे रसदोष है] । ( क ४) कहीं उत्तम प्रथम तथा मध्यम प्रकृतियों [वाले पात्रों] का विपरीत रूपमें वर्णन [ प्रकृति- विपर्यय नामक रसवोष है] जैसे उत्तम [ प्रकृति वाले पात्रों] के वर्णन हास्य बीभत्स कहरण भयानक और प्रदभुत रसोंका प्रत्यधिक वर्णन [ अनुचित है] ( क ५) मध्यम तथा प्रथम [ प्रकृतिके नायकावि] के [साथ प्रग्राम्य अर्थात् ] शुद्ध श्रृंगार वीर, रौद्र और शांतरसके प्रकर्षका वर्णन [ अनुचित होनेसे ये दोनों प्रकारके बन प्रकृति- विपर्यय नामक रस दोनोंमें प्राते हैं] ( क ६) उत्तम [ प्रकृतियों] में भी दिव्य [पात्रों] के श्रृंगारका वर्णन [अपने] मातापिताके श्रृंगार रसके वर्णन के समान [ होनेसे अनुचित ] है । जैसे कुमारसम्भवमें पार्वती और शिवके [ शृंगारका वर्णन ] । ( क ७) देवताओंको छोड़कर उत्तम प्रकृतियोंमें भी तुरन्त फल देने वाले या पातालमें गमन, समुद्रलङ्घनादिके उत्साहका वर्णन [भी अनुचित होने इसी विपर्यय रूप रसदोषकी श्रेणीमें प्राता है] । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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